Book Title: Sadhna aur Samyagdarshan Author(s): Ajitmuni Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 4
________________ उसे दुख तो प्रभावित करते ही नहीं हैं। किन्तु तीन लोक के समग्र / वैभव एवं ऐन्द्रियक सुख-साधन भी प्रलोभित नहीं कर पाते हैं। सम्यग्दर्शन एक ज्योति है जिसे अन्दर और बाहर दोनों ही पक्ष आलोकित होते हैं। जितना प्रकाश अन्तर को ज्योतित करता है उतना ही बाहर को भी। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद दूसरा कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता है। सभी प्राप्तव्य स्वतः स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं। लौकिक विभूतियों की बात तो दूर रही परन्तु मुक्ति को भी प्राप्त होना पड़ता है। दुनिया में ऐसी कोई शक्ति नहीं जो मुक्ति की प्राप्ति में बाधा डाल सके / इस प्रकार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के साथ अनन्त मंगल का द्वार खुल जाता है। साधना का आव्हान साधना भी सम्यग्दर्शन के आदर्श को अपनी वाणी से आव्हान करती है, उन्हें उद्बोधन देती है कि जब तक जीवन में लक्ष्य प्राप्ति के बाधक कारणों का अभाव नहीं होगा मोह निद्रा का नहीं छोड़ेंगे तब तक विमुक्ति किस भांति मिल सकती है? इसलिए विश्व के अनंत पदार्थों का चिन्तन करने के साथ प्राप्ति के साधन जुटाने में शक्ति श्रम का उपयोग करने की बजाय तत्वभूत पदार्थ को जानो। जागृत हो जाओ। सतर्क होओ। सावधान बनो। प्रमाद का परित्याग करके अप्रमादी बनो। उठो जागो। आगे बढ़ो, आत्मदर्शन करो। जीवन में सुख दुख तो आते रहेंगे लेकिन एक क्षण के लिए भी आत्म सद्भाव को मत छोड़ो। विस्मृत मत होने दो कि क्षणमात्र का प्रमाद भी भयंकर विपत्ति उत्पन्न कर सकता है। किए-कराए पर पानी फेर सकता है। अतीतकाल में किए गए अनंत जन्म मरणों को भूल कर एक ही बात याद रखो कि वर्तमान को शुद्ध बनाना है। वर्तमान को इतना शुद्ध बना लो कि भविष्य में फिर कभी जन्म मरण के परिचक्र में न फंस सको। वर्तमान तुम्हारा अपना है, उसके तुम स्वामी हो, अतः इसको इतना संभाल लो कि भविष्य स्वयं संभल जाए"। इन सुस्पष्ट संकेतों से एक बात प्रमाणित हो जाती है कि जो बात सम्यग्दर्शन ने कही है उसी बात को साधना ने भी दुहराया है। दोनों का उद्देश्य एक ही है कि प्राणीमात्र स्वरूप बोध करके अपने स्वरूप में स्थित होकर समग्न विभाव-भावों विकारों एवं विकल्प जालों से मुक्त होकर अंधकार से प्रकाश में आए। अन्दर बाहर सर्वत्र विराट चैतन्य के दर्शन करे। विमुक्ति भाव को प्राप्त करके समत्वयोग का सुयोग प्राप्त करे। लेकिन स्वरों में अन्तर है। दोनों की अपनी-अपनी बोली है। सम्यग्दर्शन, मार्ग दर्शक है, साधन है, और साधना है, उद्देश्य को क्रियान्वित करने वाली एक शक्ति / इसीलिए जब साधन की मुख्यता की ओर हमारी दृष्टि रहती है तब सम्यग्दर्शन साधना का आधार माना जाता है। किन्तु सम्यग्दर्शन भी तो साधना के बिना प्राप्त नहीं होता है। अतः उस दृष्टि से साधना को भी सम्यग्दर्शन का आधार कह सकते हैं। इस प्रकार साधना और सम्यग्दर्शन समानार्थक है। जिसके जीवन में इन दोनों का या दोनों में से किसी एक का भी सुमेल हो जाता है तो वह अनन्त अनन्त काल तक इस विराट विश्व का सम्यग्दर्शन करके समत्व योग की साधना में तल्लीन रहता है। (जैन समाज द्वारा धार्मिक शिक्षण व्यवस्था : पृष्ठ 147 का शेष) 2. पूरे जैन समाज की शिक्षा संस्थाओं के शिक्षार्थियों की परीक्षा के हेतु एक परीक्षा बोर्ड हो तथा उसके द्वारा उत्तीर्ण छात्रों को समाज द्वारा संचालित धार्मिक शिक्षा संस्थाओं के शिक्षण में Service दी जावे। 3. पूरे समाज द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं का एकीकरण करके एक Governing Council बनाई जावे / जो अखिल भारतीय तथा प्रादेशिक स्तर की हो। 4. इसी प्रकार प्रत्येक स्थान की संस्थाओं के लिये प्रबन्ध समिति बना दी जावे। इसमें सन्देह नहीं कि कार्य की विशालता को दृष्टिगत रखते हुए इसमें सम्पन्न होने में 4-5 वर्ष लग सकते हैं किन्तु निर्वाण महोत्सव वर्ष की एक उदाहरणीय फलश्रुति होगी। निवार्ण महोत्सव वर्ष में साम्प्रदायिक, अभिनिवेश कम करके अखिल जैन समाज रूपी वटवृक्ष का बीजारोपण करने का प्रयत्न किया गया था उसकी दिशा में शिक्षा जैसे पवित्र कार्य में पहल करके उसको पल्लवित तथा पुष्पित करने का यह प्रयत्न होगा। समाज के शिक्षा-विद्, चितक, प्रबुद्ध वर्ग, तथा नेतागण का ध्यान इस ओर आकर्षित हो तो यह कार्य मुश्किल नहीं है, आवश्यकता दृढ़ निश्चय की तथा साम्प्र दायिकत्ता-विहीन दृष्टि की। आशा है इस पर गहराई से विचार किया जावेगा। किसी उपर्युक्त समय पर भारत जैन महामण्डल स्वयं अपने पूर्व निश्चय को क्रियान्वयन के लिये व्रत संकल्प होगा। 152 राजेना-ज्योति Jain Education International ntemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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