Book Title: Sadachar ke Shashwat Mandand aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf View full book textPage 6
________________ सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म : 139 अर्थात् जो किसी देश और काल में धर्म (सदाचार) कहा जाता है, वही किसी दूसरे देश और काल में अधर्म ( दुराचार ) बन जाता है और जो हिंसा, झूठ, चौर्यकर्म आदि सामान्य अवस्था में अधर्म (दुराचार) कहे जाते हैं, वही किसी परिस्थिति विशेष में धर्म बन जाते हैं। वस्तुतः कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं, जब सदाचार, दुराचार की कोटि में और दुराचार, सदाचार की कोटि में होता है। द्रौपदी का पाँचों पांडवों के साथ जो पति-पत्नी का सम्बन्ध था फिर भी उसकी गणना सदाचारी सती स्त्रियों में की जाती है, जबकि वर्तमान समाज में इस प्रकार का आचरण दुराचार ही कहा जावेगा। किन्तु क्या इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते है कि सदाचार-दुराचार का कोई शाश्वत मानदण्ड नहीं हो सकता है। वस्तुतः सदाचार या दुराचार के किसी मानदण्ड का एकान्त रूप से निश्चय कर पाना कठिन है। जो बाहर नैतिक दिखाई देता है, वह भीतर से अनैतिक हो सकता है और जो बाहर से अनैतिक दिखाई देता है, वह भीतर से नैतिक हो सकता है। एक ओर तो व्यक्ति की आन्तरिक मनोवृत्तियाँ और दूसरी ओर जागतिक परिस्थितियाँ किसी कर्म की नैतिक मूल्यवत्ता को प्रभावित करती रहती हैं। अतः इस सम्बन्ध में कोई एकान्त नियम कार्य नहीं करता है। हमें उन सब पहलुओं पर भी ध्यान देना होता है जो कि किसी कर्म की नैतिक मूल्यवत्ता को प्रभावित कर सकते है। जैन विचारकों ने सदाचार या नैतिकता के परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील अथवा सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों पक्षों पर विचार किया है। सदाचार के मानदण्ड की परिवर्तनशीलता का प्रश्न वस्तुतः सदाचार के मानदण्डों में परिवर्तन देशिक और कालिक आवश्यकता के अनुरूप होता है। महाभारत में कहा गया है कि -- अन्ये कृतयुगे धर्मस्त्रेतायां नपरेऽपरे। अन्ये कलियुगे नृणां युग हासानुरूपतः ।। शान्तिपर्व, 260/8 युग के हास के अनुस्प सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के धर्म अलग-अलग होते है। यह परिस्थितियों के परवर्तन से होने वाला मूल्य परिवर्तन एक प्रकार का सापेक्षिक परिवर्तन ही होगा। यह सही है कि मनुष्य को जिस विश्व में जीवन जीना होता है वह रेस्थिति निरपेक्ष नहीं है। दैशिक एवं कालिक परिस्थितियों के परिवर्तन हमारी सदाचार सम्बन्धी धारणाओं को प्रभावित करते है। दैशिक और कालिक परिवर्तन के कारण यह सम्भव है कि जो कर्म एक देश और काल में विहित हों, वहीं दूसरे देश और काल में अविहित हो जावें। अष्टकप्रकरण की टीका (27/5) में कहा गया है -- उत्पद्यते ही साऽक्स्था देशकालाभयान प्रति। यस्यामकार्य कायं स्यात् कर्म कायं च वर्जयेत्।। दैशिक और कालिक स्थितियों के परिवर्तन से ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाती है. जिसमें कार्य, अकार्य की कोटि में और अकार्य कार्य की कोटि में आ जाता है, किन्तु यह अवस्था सामान्य अवस्था नहीं, अपितु कोई विशिष्ट अवस्था होती है, जिसे हम आफ्वादिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16