Book Title: Sadachar ke Shashwat Mandand aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 7
________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ से सम्बन्धित होते हैं और आचरण परिस्थिति के परिवर्तन के साथ परिवर्तन होता रहता है। दण्ड परिवर्तित होते रहते हैं। Jain Education International निरपेक्ष नहीं हो सकता अतः उसमें परिस्थितियों इस प्रकार साधनपरक आचरण के नैतिक मान उसी मूल्य के विरोधी तथ्य दूसरे, व्यक्ति को समाज में जीवन जीना होता है और समाज परिस्थिति निरपेक्ष नहीं होता है अतः सामाजिक नैतिकता अपरिवर्तनीय नहीं कही जा सकती, उसमें देशकालगत परि वर्तनों का प्रभाव पड़ता है किन्तु उसकी यह परिवर्तनशीलता भी देशकाल सापेक्ष ही होती है । वस्तुतः किसी परिस्थिति में किसी एक साध्य का नैतिक मूल्य इतना प्रधान हो जाता है कि उसकी सिद्धि के लिए किसी दूसरे नैतिक मूल्य का निषेध आवश्यक हो जाता है जैसे अन्याय के प्रतिकार के लिए हिंसा | किन्तु यह निषेध परिस्थिति विशेष तक ही सीमित रहता है। उस परिस्थिति के सामान्य होने पर धर्म पुनः धर्म बन जाता है और अधर्म, अधर्म बन जाता है । वस्तुतः आपवादिक अवस्था में कोई एक मूल्य इतना प्रधान प्रतीत होता है कि उसकी उपलब्धि के लिए हम अन्य मूल्यों की उपेक्षा कर देते हैं अथवा कभी-कभी सामान्य रूप से स्वीकृत को हम उसका साधन बना लेते हैं । उदाहरण के लिए जब हमें जीवन प्रतीत होता है तो उस अवस्था में हम हिंसा, असत्य भाषण चोरी आदि हैं । इस प्रकार अपवाद की अवस्था में एक मूल्य साध्य स्थान पर चला जाता है और अपने साधनों को मूल्यवत्ता प्रदान करता प्रतीत होता है, किन्तु यह मूल्य भ्रम ही है, उस समय भी चोरी या हिंसा मूल्य नहीं बन जाते हैं क्योंकि उनका स्वतः कोई मूल्य नहीं है, वे तो उस साध्य की मूल्यवत्ता के कारण मूल्य के रूप में प्रतीत या आभासित होते हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अहिंसा के स्थान पर हिंसा या सत्य के स्थान पर असत्य नैतिक मूल्य बन जाते हैं। साधुजन की रक्षा के लिए दुष्टजन की हिंसा की जा सकती है किन्तु इससे हिंसा मूल्य नहीं बन जाती है । किसी प्रत्यय की नैतिक मूल्यवत्ता उसके किसी परिस्थिति विशेष में आचरित होने या नहीं होने से अप्रभावित भी रह सकती है। प्रथम तो यह कि अपवाद की मूल्यवत्ता केवल उस परिस्थिति विशेष में ही होती है, उसके आधार पर सदाचार का कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता । साथ ही जब व्यक्ति आपद्धर्म का आचरण करता है तब भी उसकी दृष्टि में मूल नैतिक नियम या सदाचार की मूल्यवत्ता अक्षुण्ण बनी रहती है। यह तो परिस्थितिगत या व्यक्तिगत विवशता है, जिसके कारण उसे वह आचरण करना पड़ रहा है। दूसरे सार्वभौम नियम में और अपवाद में अन्तर है । अपवाद की यदि कोई मूल्यवत्ता है, तो वह केवल विशिष्ट परिस्थिति में ही रहती है, जबकि सामान्य नियम की मूल्यवत्ता सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सार्वजनीन होती है। अतः आपद्धर्म या अपवाद मार्ग की स्वीकृति जैनधर्म में मूल्य परिवर्तन की सूचक नहीं है। वह सामान्यतया किसी मूल्य को न तो निर्मूल्य करती है और न मूल्य संस्थान में उसे अपने स्थान से पदच्युत हो करती है, अत: वह मूल्यान्तरण भी नहीं है । नैतिक कर्म के दो पक्ष होते हैं - एक बाह्यपक्ष, जो आचरण के रूप में होता है और दूसरा आन्तरिक पक्ष, जो कर्ता के मनोभावों के रूप में होता है। अपवादमार्ग का सम्बन्ध केवल बाह्य पक्ष से होता है, अतः उससे किसी नैतिक मूल्य की मूल्यवत्ता प्रभावित नहीं होती है । कर्म का मात्र बाह्य पक्ष उसे कोई नैतिक मूल्य प्रदान नहीं करता है । I सदाचार के मानदण्डों को परिवर्तनशीलता का अर्थ सदाचार के मानदण्डों की परिवर्तनशीलता पर विचार करते समय सबसे पहले हमें यह चिन्तन के विविध बिन्दु ४९२ For Private & Personal Use Only , रक्षण ही एकमात्र मूल्य को अनैतिक नहीं मानते www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15