Book Title: Rugved tatha Tirthankar Rushabhdev
Author(s): Prahlad N Vajpai
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

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Page 1
________________ FER, PIS ITBP REG ऋषभ देव मानव संस्कृति के आदि पुरुष हैं । वह सबसे पहले राजा हुए जिन्होंने गाँवों और नगरों का निर्माण कराया। उनके राज्य काल में वनवास से लोगों ने गाँवों और नगरों में भवन बना कर रहना आरम्भ किया। राज्य को समृद्धि के लिये गायों, घोड़ों और हाथियों का संग्रह आरम्भ किया। मंत्रिमण्डल बनाया । चतुरंगिणी सेनाएँ सजायीं, सेनापतियों की व्यवस्था की । साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति का प्रवर्तन किया । विवाहपद्धति का सूत्रपात किया । कृषि की व्यवस्था प्रारम्भ कर खाद्य समस्या का समाधान प्रस्तुत किया। शिल्पकला के विविध आयाम प्रस्तुत किये । व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया । इस प्रकार सभी जीवों को सुखी बनाने वाली सभ्यता का शुभारम्भ किया । ऋग्वेद तथा तीर्थंकर ऋषभ देव (डॉ. श्री प्रहलादनारायण बाजपेयी) जीवन के अन्तिम भाग में ऋषभ देव ने राज्य व्यवस्था त्याग दी और श्रमण बन गये। वर्षों तक ऋषभ देव ने अनवरत साधना की । उन्हें कैवल्य लाभ हुआ । श्रमण-श्रमणी श्रावक-श्राविका इन चार तीर्थों की स्थापना की । श्रमण धर्म के पाँच महाव्रतों एवं श्रावक धर्म के लिये बारह व्रतों का उपदेश दिया। इस काल में ऋषभ देव प्रथम सम्राट्, प्रथम केवली और सर्व प्रथम तीर्थंकर थे । सभ्यता का सूत्रपात करने वाले आदि तीर्थंकर ऋषभ देव के विषय में यह कहा गया है: 'वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है एवं धर्मों का मुख काश्यप ऋषभ देव है ।" : है ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ रत्न है उसकी एक ऋचा में तीर्थंकर ऋषभ देव की स्तुति की गई है। वैदिक ऋषि ने भाव विभोर होकर प्रथम तीर्थंकर की स्तुति करते हुए कहा है आत्म दृष्टा प्रभो, परम सुख प्राप्त करने के लिये मैं तेरी शरण में आना चाहता हूँ क्योंकि तेरा उपदेश और तेरी वाणी शक्तिशाली है, उनकी मैं अवधारणा करता हूँ। हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और देवों में तुम्ही पहले पूर्व गत ज्ञान के प्रतिपादक हो ।' ऋग्वेद में ऋषभ देव को पूर्व ज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाशक कहा गया है। उसमें बताया गया है जैसे जल से भरा मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है, जल से पृथ्वी की प्यास बुझा देता है। उसी प्रकार परम्परागत पूर्वज्ञान के प्रतिपादक महान् ऋषभ देव का शासन वर देने वाला हो। उनके शासन में ऋषि-परम्परा से प्राप्त पूर्व का ज्ञान आत्मिक शत्रु क्रोधादि का विध्वंसक हो। दोनों प्रकार की आत्माएँ (संसारी और सिद्ध) स्वात्म गुणों से ही चमकती हैं। अतः वे राजा हैं, पूर्ण ज्ञान के भण्डार हैं और आत्म पतन नहीं होने देते । उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २५, गा. १६ ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम् । तारं शत्रु कृषि विराजं गोपतिं गवान् ॥ ऋग्वेद १०/१६६/१ श्रीमद् जयन्तसेनरि अभिनन्दन ग्रंथ विश्लेषण Jain Education International वर्षा की उपमा आदि तीर्थंकर ऋषभ देव के देशना रूपी जल की ही सूचक है । पूर्व गत ज्ञान का उल्लेख जैन परम्परा के अनुरूप ही है । अतः ऋग्वेद के यह पूर्व ज्ञाता ऋषभ और कोई नहीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव ही हैं। 'आत्मा ही परमात्मा है ।" यह जैन दर्शनका मूलभूत सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को ऋग्वेद में इस प्रकार से प्रतिपादित किया गया है। जिसके चार श्रृंग हैं अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य तीन पाद हैं सम्यग्दर्शन, मुक्ति तथा जो मन, वचन, काय इन तीनों योगों से बद्ध अर्थात् सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र दो शीर्ष हैं केवल ज्ञान और संयत वृषभ हैं उन्हीं ऋषभ देव ने घोषणा की 'महादेव (परमात्मा) मर्त्यो में निवास करता है ।" अर्थात् प्रत्येक आत्मा में परमात्मा का निवास है । - ऋषभ देव ने कठोर तपश्चरण रूप साधना कर आत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा तक क्रमशः उन्नति करते हुए जन जन के समक्ष यह आदर्श प्रस्तुत किया कि तपस्या से सब कुछ संभव है। एतदर्थ ही ऋग्वेद के मेधावी महर्षि द्वारा निर्दिष्ट किया गया ऋषभ स्वयं आदि पुरुष थे, जिन्होंने सर्व प्रथम मर्त्य दशा में अमरत्व की उपलब्धि अर्पित की। ऋषभ देव ने सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भावना का सन्देश दिया । इसीलिये उन्हें विशुद्ध प्रेम पुजारी के रूप में भी ख्याति मिली। उनके मैत्री भावना सन्देश का मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान नेता) केशी वृषभ जो अरिदमन के लिये नियुक्त थे, उनकी वाणी निकली, जिसके परिणाम स्वरूप मुद्गल ऋषि की गायें। मरवस्य ते तीवषस्य प्रजूति मिर्याभं वाचमृत्ताय भूषन् । इन्द्र क्षितीमामास मानुषीणां । विशां देवी नामुत पूर्वयामा || असूतपूर्वी वृषभो ज्यायनि मा अरय शुरुधः सन्ति पूर्वीः । दिवो न पाता विदथस्यधीमिः । क्षमं राजाना प्रतिवोदधाथे || ऋग्वेद ५२/३८ (अ) अप्पा सो परमप्पा । (ब) सदा भुक्तं .....कारण परमात्मानं जानाति । नियमसार, तात्पर्य वृत्ति, गा. ९६ चत्वारि श्रृङगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीती । महादेवो मर्त्यानाविवेश ॥ ऋग्वेद ४/५८/३ तन्मर्त्यस्य देवत्व सजातमग्रः । ऋग्वेद ३१/१७ ऋग्वेद २/३४/२ (४३) For Private & Personal Use Only सरल हृदय सद्भावना, स्नेह सुमति सहकार । जयन्तसेन जीवन भुवि, सुखदा पांच 'स' कार ।। www.jalnelibrary.org

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