Book Title: Rugved me Arhat aur Rushabhvachi Ruchaye Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf View full book textPage 3
________________ प्रो. सागरमल जैन 187 आच्छन्धिानैर्गुपितो बाहतः सोम रक्षितः । ग्राणामिछृण्वन् तिष्ठासि न ते अश्रन्ति पार्थिवः ।। - ऋग्वेद 10 185 14 अर्थात हे सोम । तू गप्त विधि विधानों से रक्षित बार्हत गणों से संरक्षित है। तू (सोमलता के ) पीसने वाले पत्थरों का शब्द सुनते ही रहता है। तुझे पृथ्वी का कोई भी सामान्य जन नहीं खा सकता। बहती वेद को कहते है और इस बृहती के उपासक बार्हत कहे जाते थे। इस प्रकार वेदों में वर्णित सोमपान एवं यज्ञ-याग में निष्ठा रखने वाले और उसे ही अपनी धर्म साधना का सर्वस्व मानने वाले लोग ही बार्हत थे। इनके विपरीत ध्यान और तप साधना को प्रमुख मानने वाले व्यक्ति आर्हत नाम से जाने जाते थे। वैदिक साहित्य में हमें स्पष्ट रूप से अर्हत् को मानने वाले इन आर्हतों के उल्लेख उपलब्ध हैं। ऋग्वेद में अर्हन् और अर्हन्त शब्दों का प्रयोग नौ ऋचाओं में दस से अधिक बार हुआ है। सामान्यतया वैदिक, विद्वानों ने इन ऋचाओं में प्रयुक्त अर्हन् शब्द को पूजनीय के अर्थ में अग्नि, रुद्र आदि वैदिक देवताओं के विशेषण के रूप में ही व्याख्यायित किया है। यह सत्य है कि एक विशेषण के रूप में अर्हन या अर्हत् का शब्द का अर्थ पूजनीय होता है, किन्तु भावेद में अर्हन् के अतिरिक्त अर्हन्त शब्द का स्पष्ट स्वतन्त्र प्रयोग यह बताता है कि वस्तुतः वह एक संज्ञा पद भी है और अर्हन्त देव का वाची है। इस सन्दर्भ में निम्न ऋचाएँ विशेष रूप से द्रष्टव्य है - अहविषिभर्षि सायकानि धन्वाहन्निष्कं यजतं विश्वरूपम्। अर्हन्निदं दयसे विश्वमन्वं न वा ओजीयो रुद्र-त्वदस्ति।। (2.33.10) प्रस्तुत ऋचा को रुद्र सूक्त के अन्तर्गत होने के कारण वैदिक व्याख्याकारों ने यहाँ अर्हन शब्द को रुद्र का एक विशेषण मानकर इसका अर्थ इस प्रकार किया है-- हे रुद्र ! योग्य तू बाणों और धनुष को धारण करता है। योग्य तू, पूजा के योग्य और अनेक स्पों वाले सोने को धारण करता है। योग्य तू इस सारे विस्तृत जगत् की रक्षा करता है। हे रुद्र, तुझसे अधिक तेजस्वी और कोई नहीं है। जैन दृष्टि में इस ऋचा को निम्न प्रकार से भी व्याख्यायित किया जा सकता है -- हे अर्हन् ! तू ( संयम रूपी) शस्त्रों (धनुष-बाण) को धारण करता है ? और सांसारिक जीवों में प्राण रुप स्वर्ण का त्याग कर देता है ? निश्चय ही तुझसे अधिक बलवान और कठोर और कोई नहीं है। हे अर्हन् तू विश्व की अर्थात् संसार के प्राणियों की मातृवत् दया करता है। प्रस्तुत प्रसंग में अर्हन् की ब्याज रूप से स्तुति की गयी है। यहाँ शस्त्र धारण करने का तात्पर्य कर्म शत्रुओं या विषय वासनाओं को पराजित करने के लिए संयम रूपी शस्त्रों के धारण करने से है। जैन परम्परा में 'अरिहंत शब्द की व्याख्या शत्रु का नाश करने वाला, इस रूप में की गई है। आचारांग में साधक को अपनी वासनाओं से युद्ध करने का निर्देश दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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