Book Title: RatnakarandShravaka char me Proshadhopavas Charcha Author(s): Ratanchandra Katariya Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 2
________________ प्रतिमाके श्लोक १४० के भी विरुद्ध है । अतः यह चतूराहार विसर्जन श्लोक आश्चर्य नहीं, जो ग्रन्थमें किसी तरह प्रक्षिप्त हो गया हो और टीकाकार को उसका ध्यान भी न रहा हो। इस श्लोक पर और भी कुछ विद्वान इसी तरहके क्षेपक होने का आरोप करते हैं, किन्तु मेरे विचार में यह सब ठीक नहीं है । यह श्लोक मूल का ही अंग है और स्वामी समन्तभद्रकृत ही है। किसी भी प्राचीन अर्वाचीन प्रतिमें इस श्लोक का अभाव नहीं पाया जाता। अगर यह क्षेपक है, तो यह दूसरे किस ग्रन्थका मूल श्लोक है और कौन इसका कर्ता है, यह स्पष्ट होना चाहिये । अन्यथा किसी श्लोकको क्षेपक कह देना अति साहस है। इस श्लोक की रचना शैली एक विशेषता को लिये है जो इसे समन्तभद्र की ही कृति सिद्ध करती है। इसमें जो लक्षण बांधने का ढंग है, वह रत्नकरण्डश्रावकाचारके सिवा अन्य किसी भी श्रावकाचारमें नहीं पाया जाता। इसकी अद्वितीयता निम्न है:-इसमें यदुके साथ 'आचरण' शब्द न देकर 'आचरति क्रिया दी है और यद् की जोड़का सः शब्द देकर लक्षण बांधा है। यह शैली रत्नकरण्डश्रावकाचारमें अन्यत्र भी पाई जाती है; यथा, (१) न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतर्यत् । सा परदारनिवृतिः, स्वदारसन्तोषनामापि ॥५९ ।। (२) निहितं वा पतितं वा, सुविस्तृत वा परस्वमविसृष्टं । ___न हरति यन्न च दत्ते तद्कृशचौर्यादुपारमणम् ॥ ५७ ।। (३) स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद् वदन्ति सन्तः, स्थूलमृषावादवैरमणम् ।। ५५ ।। (४) संकल्पात्कृतकारितमननाद् योगत्रयस्य चरसत्वात् । ___न हिनस्ति यत् तदाहुः, स्थूलबधाद्विरमणं निपुणाः ॥ ५३ ॥ (५) अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ ४२ ॥ (६) स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यता यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥१५ ।। इसतरह यह सुतरां सिद्ध है कि यह श्लोक क्रमांक १०९ रत्नकरण्डश्रावकाचार का ही अंग है और स्वामी समन्तभद्रकृत हो है। अब जो आपत्तियाँ की गई हैं, उनका भी निरसन निम्न प्रकार किया जा सकता है: (१) टीकाकारने जो श्लोक १०६ की उत्था निकामें 'प्रोषधोपवासलक्षणं शिक्षाव्रतं प्राह' लिखा है, वह ठीक है। उसका अर्थ यह है कि प्रोषधोपवास नामके शिक्षाव्रत का कथन करते है। शिक्षाव्रतके चार भेद हैं। उनमेंसे यहाँ प्रोषधोपवास नामके शिक्षाव्रत का कथन किया है। अतः नाम या भेद अर्थमें यहाँ लक्षण शब्द का प्रयोग किया गया है। यही शैली आगेके वैयावृत्त शिक्षावत की उत्थानिकामें इस प्रकार दी है “इदानीं वैयावृत्यलक्षणशिक्षाव्रतस्य स्वरूपं प्ररूपयन्नाह ।" श्लोक १०९ की टीकामें चतुराहार पदकी व्याख्या इस प्रकार की है-चत्वारश्च ते अहाराश्चाशन-पान-स्वाद्यलेह्यलक्षणाः । इसमें भी लक्षण शब्द भेद अर्थमें ही दिया है। - १५८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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