Book Title: Ratnakar Shatak
Author(s): Ramesh Mishr
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 5
________________ हिन्दी भाषा के आद्य रचनाकार जैन ही थे। हिन्दी के आदि कवि चतुर्मुख, स्वयंभू तथा रयधू माने जाते हैं, जो कि जैन मतावलम्बी थे / कन्नड़ भाषा की सम्पन्नता तो जैन-साहित्यकारों पर ही निर्भर है। उक्त उद्देश्य की सिद्धि के लिए ही आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने साहित्य को सर्वजन सुलभ बनाने के लक्ष्य को सामने रखा / इसी लिए आपकी सभी प्रमुख रचनाएँ हिन्दी में हैं। कानड़ी भाषा के ग्रन्थरत्नों को आपने हिन्दीभाषी जनता के लिए सुलभ बनाया है। 'रत्नाकर शतक' के समान ही आपने 'निर्वाण लक्ष्मीपति स्तुति', 'अपराजितेश्वर शतक', 'भरतेश वैभव, 'भावना सार', 'धर्मामृत', 'योगामृत', 'निरंजन स्तुति' आदि कानड़ी ग्रन्थों की हिन्दी-टीका की है। इस प्रकार दो भाषाभाषियों को ही नहीं, दो क्षेत्र-विशेष के वैचारिक आदान-प्रदान के मार्ग को उदारता से उद्घाटित किया है। इसके लिए हिन्दी संसार ही नहीं, समस्त राष्ट्र आपका ऋणी है। 'रत्नाकर शतक' का प्रथम संस्करण 'स्याद्वाद प्रकाशन मंदिर' आरा से वीर संवत् 2476 में प्रकाशित हुआ था। इस संस्करण के दोनों भागों की पृष्ठ संख्या 240+271 = 511 पृष्ठ थी। उस समय इसका सम्पादन श्री शान्तिराज शास्त्री द्वारा सम्पादित 'रत्नाकर शतक' के आधार पर किया गया था। तब यह प्रथम भाग में 50 पद्य एवं द्वितीय भाग में 78 पद्यों की व्याख्या में विभाजित था। पाठकों की रुचि के कारण प्रथम संस्करण शीघ्र समाप्त हो गया / 'रत्नाकर शतक' का प्रस्तुत द्वितीय संस्करण प्रथम संस्करण की पुनरावृत्ति मात्र नहीं है। आचार्य देशभूषण जी ने बड़े परिश्रम से इस द्वितीय संस्करण का वीर संवत् 2486 में दिल्ली चातुर्मास के समय पुनरुद्धार किया है और तब इसके दोनों खण्डों की श्लोक संख्या में 63 पद्य एवं 65 पद्यों के विभाजन के साथ ही व्याख्या-विस्तार होने से 218 पृष्ठ की सामग्री अभिवृद्ध हुई / इसका मुख्य कारण व्याख्याकार द्वारा विषय को अधिक बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से विचार-विस्तार प्रदान करना है। ऐसा करते हुए आचार्य श्री ने अनेकों उद्धरण देकर विषय को बहुत अधिक स्पष्टता प्रदान की है। इस व्याख्या को पढ़कर लगता है कि आचार्य श्री का शास्त्र-परम्परा-सम्मत ज्ञान असीमित है। गुरु गम्भीर विचारों को भी सरल-सहज भाषा में हृदयग्राही बनाने की आप में अपूर्व क्षमता है। प्रथम खण्ड के प्रारम्भ में 'अभिमत' शीर्षक के अन्तर्गत आपने ग्रन्थ, ग्रन्थकार एवं जैन-रचनाकार-परम्परा के सम्बन्ध में बहुमूल्य वस्तुपरक जानकारी भी दी है, जो हिन्दी-पाठकों के लिए महत्त्वपूर्ण है। अतः कहा जा सकता है कि 'रत्नाकर शतक' आज आचार्य देशभूषण जी के सारस्वत प्रयत्न से कन्नड़ भाषा का सरस एवं उपदेश ग्रंथ ही न होकर हिन्दी भाषा की आंतरप्रान्तीय योगदान की राष्ट्रीय निधि है। 38 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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