Book Title: Rajprashniya Sutra me Charvak Mat ka Prastutikaran Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 2
________________ १३८ तब तक वे वहां से नहीं आ सकते। अतः तुम्हारे पितामह के द्वारा तुम्हें आकर प्रतिबोध न दे पाने के कारण यह मान्यता मत रखो कि जीव और शरीर एक ही हैं, अपितु यह मान्यता रखो की जीव अन्य है और शरीर अन्य है। स्मरण रहे कि दीघनिकाय में भी नरक से मनुष्य लोक में न आ पाने के इन्हीं चार कारणों का उल्लेख किया गया है। केशीकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने दूसरा तर्क प्रस्तुत किया । हे श्रमण ! मेरी दादी अत्यन्त धार्मिक थीं। आप लोगों के मतानुसार वह निश्चित ही स्वर्ग में उत्पन्न हुई होंगी। मैं अपनी दादी का अत्यन्त प्रिय था अत: उसे मुझे आकर यह बताना चाहिए कि, हे पौत्र ! अपने पुण्य कर्मों के कारण मैं स्वर्ग में उत्पन्न हुई हूँ। तुम भी मेरे समान धार्मिक जीवन बिताओ, जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन कर स्वर्ग में उत्पन्न हो। क्योंकि मेरी दादी ने स्वर्ग से आकर मुझे ऐसा प्रतिबोध नहीं दिया अत: मैं यही मानता हूँ कि जीवन और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है। राजा के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया - हे राजन ! यदि तुम स्नान, बलि कर्म और कौतुकमंगल करके देवकुल में प्रविष्ट हो रहे हो, उस समय कोई पुरुष शौचालय में खड़ा होकर यह कहे कि, हे स्वामिन् ! यहाँ आओ ! कुछ समय के लिए यहाँ बैठो, खड़े होओ। तो क्या तुम उस पुरुष की बात को स्वीकार करोगे? निश्चय ही तुम उस अपवित्र स्थान पर जाना नहीं चाहोगे। इसी प्रकार हे राजन ! देवलोक में उत्पन्न देव वहाँ के दिव्य काम भोगों में इतने मूर्च्छित, गृद्ध और तल्लीन हो जाते हैं कि वे मनुष्य लोक में आने की इच्छा नहीं करते। दूसरे देवलोक सम्बन्धी दिव्य भोगों में तल्लीन हो जाने के कारण उनका मनुष्य सम्बन्धी प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है अत: वे मनुष्य लोक में नहीं आ पाते । तीसरे देवलोक में उत्पन्न वे देव वहां के दिव्य काम भोगों में मूर्छित या तल्लीन होने के कारण अभी जाता हूँ - अभी जाता हूँ, ऐसा सोचते रहते हैं किन्तु उतने समय में अल्पायुष्य वाले मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं। (क्योंकि देवों का एक दिन-रात मनुष्य लोक के सौ वर्ष के बराबर होता है, अत: एक दिन का भी विलम्ब होने पर यहाँ मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो जाता है । पुन: मनुष्य लोक इतना दुर्गन्धित और अनिष्टकर है कि उसकी दुर्गन्ध के कारण देव मनुष्य लोक में आना नहीं चाहते। अत: तुम्हारी दादी के स्वर्ग से नहीं आने पर यह श्रद्धा रखना उचित नहीं है कि जीव और शरीर भिन्नभिन्न नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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