Book Title: Rajasthani Jain Santo ki Sahitya Sadhna Author(s): Kasturchand Kasliwal Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ ७६४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय कल्याणकारी साहित्य उपलब्ध हुआ वहीं से उसका संग्रह करके शास्त्र-भण्डारों में संग्रहीत किया गया. साहित्य-संग्रह की दृष्टि से इन्होंने स्थान-स्थान पर ग्रंथभण्डार स्थापित किये. इन्हीं सन्तों की साहित्यिक सेवा के परिणामस्वरूप राजस्थान के जैन ग्रंथभण्डारों में १-२ लाख हस्तलिखित ग्रंथ अब भी उपलब्ध होते हैं. ग्रंथसंग्रह के अतिरिक्त इन्होंने जैनेतर विद्वानों द्वारा लिखित काव्यों एवं अन्य ग्रंथों पर टीकाएँ लिखीं और उनके पठन-पाठन में सहायता पहुँचाई. राजस्थान के जैनग्रंथ-भण्डारों में अकेले जैसलमेर के जैन ग्रंथ-संग्रहालय ही ऐसे संग्रहालय हैं जिनकी तुलना भारत के किसी भी प्राचीन एवं बड़े से बड़े ग्रंथ-संग्रहालय से की जा सकती है. उनमें अधिकांश ताड़पत्र पर लिखी हुई प्रतियां हैं और वे सभी राष्ट्र की अमूल्य संपत्ति हैं. ताड़पत्र पर लिखी हुई इतनी प्राचीन प्रतियां अन्यत्र मिलना सम्भव नहीं है. श्री जिनचन्द्र सूरि ने संवत् १४६७ में बृहद् ज्ञानभण्डार की स्थापना करके साहित्य की सैकड़ों अमूल्य निधियों को नष्ट होने से बचाया. जैसलमेर के इन भण्डारों को देखकर कर्नल टाड, डा. बूहर, डा० जैकोबी जैसे पाश्चात्य विद्वान् एवं भाण्डारकर, दलाल, जैसे भारतीय विद्वान् आश्चर्यचकित रह गये. द्रोणाचार्यकृत ओपनियुक्ति वृत्ति की इस भण्डार में सबसे प्राचीन प्रति है जिसकी संवत् १११७ में पाहिल ने प्रतिलिपि की थी.' जैनागमों एवं ग्रंथों की प्रतियों के अतिरिक्त दण्डि कवि के काव्यादर्श की संवत् ११६१ की, मम्मट के काव्य-प्रकाश की संवत् १२१५ की, रुद्रट कवि के काव्यालंकार पर नमि साधु की टीका सहित संवत् १२०६, एवं कुत्तक के वक्रोक्तिजीवित की १४वीं शताब्दी की महत्त्वपूर्ण प्रतियां संग्रहीत की हुई हैं. विमल सूरि कृत प्राकृत के महाकाव्य पउमचरिय की संवत् १२०४ की जो प्रति है वह संभवत: अब तक उपलब्ध प्रतियों में प्राचीनतम प्रति है. इसी तरह उद्योतन सूरिकृत कुवलयमाला की प्रति भी अत्यधिक प्राचीन है जो संवत् १२६१ की लिखी हुई है. कालिदास, माघ, भारवि, हर्ष, हलायुध, भट्टी आदि महाकवियों द्वारा रचित काव्यों की प्राचीनतम प्रतियाँ एवं उनकी टीकाएँ यहाँ के भण्डारों के अतिरिक्त आमेर, अजमेर, नागौर, बीकानेर के भण्डारों में भी संग्रहीत हैं. न्यायशास्त्र के ग्रन्थों में सांख्यतत्त्वकौमुदी, पातंजलयोगदर्शन, न्यायबिन्दु, न्यायकंदली, खंडन-खंडखाद्य, गोतमीय न्यायसूत्रवृत्ति आदि की कितनी ही प्राचीन एवं सुन्दर प्रतियां जैन संतों द्वारा प्रतिलिपि की हुई इन भण्डारों में संग्रहीत हैं. नाटक साहित्य में मुद्राराक्षस, बेणीसंहार, अनर्घराघव एवं प्रबोधचन्द्रोदय के नाम उल्लेखनीय हैं. जैनसंतों ने केवल संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य के संग्रह में ही रुचि नहीं ली किन्तु हिंदी एवं राजस्थानी रचनाओं के संग्रह में भी उतना ही प्रशंसनीय परिश्रम किया. कबीरदास एवं उनके पंथ के कवियों द्वारा लिखा हुआ अधिकांश साहित्य आज आमेर शास्त्रभण्डार में मिलेगा. इसी तरह पृथ्वीराज रासो, वीसलदेव रासो की महत्त्वपूर्ण प्रतियां बीकानेर एवं कोटा के शास्त्र-भण्डारों में संग्रहीत हैं. कृष्ण-रुक्मणिबेलि, रसिकप्रिया एवं विहारीसतसई की तो गद्यपद्य टीका सहित कितनी ही प्रतियाँ इन भण्डारों में खोज करने पर प्राप्त हुई हैं. राजस्थान के ये जैन संत साहित्य के सच्चे साधक थे. आत्मचिंतन एवं आध्यात्मिक चर्चा के अतिरिक्त इन्हें जो भी समय मिलता, वे उसका पूरा सदुपयोग साहित्यरचना में करते थे. वे स्वयं ग्रंथ लिखते, दूसरों से लिखवाते एवं भक्तों को लिखवाने का उपदेश देते. अपनी रचनाओं के अन्त में इस तरह के कार्य की अत्यधिक प्रशंसा करते. इसके दो उदाहरण देखिये १. जो पढइ पढावइ एक चित्तु, सइ लिहइ लिहावइ जो णिरुत्त । श्रायण्णई मण्णइं जो पसत्थु, परिभावइ अहिणिसु एउ सत्थु । जिप्पइ ण कसायहि इंदिएहिं, तो लियइ ण सो पासंडिएहि । तहो दुक्किय कम्मु असेसु जाइ, सो लहइ मोक्ख सुक्खभावइ ।।-श्रीचन्द्र कृत रत्नकरण्ड २. मनोहार प्रबन्ध ए गुथ्यो करि विवेक । प्रद्य मन गुण सूत्रिकरी, सब वन कुसुम अनेक ॥१०॥ १. संवत् ११९७ मंगल महाश्री ||६|| पाहिलेन लिखितम् मंगल महाश्री. Papelibrary.org Jain Education IntematonaPage Navigation
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