Book Title: Rajasthan ki Pura Sampada ke Khajane Prachin Jain Pandulipiya
Author(s): Vijayashankar Shrivastava
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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________________ राजस्थानकी पुरा सम्पदाके खजाने प्राचीन जैन पाण्डुलिपियाँ विजय शंकर श्रीवास्तव, जयपुर हस्त लिखित ग्रन्थोंकी जो समृद्ध पुरा सम्पदा आज भी राजस्थानमें विद्यमान है, वह महत्त्वपूर्ण होने के साथ-ही-साथ विस्मयकारी व अद्भुत भी है। यहाँ शस्त्र और शास्त्रका जो अद्भुत संगम है, वह भारतीय इतिहासका स्वर्णिम पृष्ठ है । राजस्थानके जैन ज्ञान भण्डार एवं विभिन्न भूतपूर्व रियासतों तथा ठेकेदारोंके सरस्वती भण्डार एवं पाण्डुलिपि पुस्तकालय भारतीय वाङ्मयकी अनोखी धरोहर है । व्यक्तिगत संग्रहोंके रूपमें भी हमारे साहित्यकी अमूल्य निधियाँ यहाँ सुरक्षित हैं । इन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी संख्या यहाँ आज भी लाखों में हैं । इनमें अधिकांश हमारी अज्ञानता एवं प्रमादसे दीमकके शिकार हुये जा रहे हैं, प्राचीन चित्रोंकी बढ़ती हुई माँगके परिणाम स्वरूप अनेक महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ लोभवश नष्ट की जा रही हैं तथा हमारी संकुचित वृत्तिके कारण ज्ञानके ये अनेक भण्डार अध्येताओं एवं जिज्ञासुओंकी भी पहुँचके बाहर हैं | राजस्थानके ये बिखरे खजाने वास्तव में संरक्षण और शोधकी प्रतीक्षामें मूक क्रन्दन कर रहे हैं। जिससे साहित्य, इतिहास व संस्कृतिकी अनेक विलुप्त कड़ियाँ सँजोयी जा सकें । यह स्वाभाविक जिज्ञासाका विषय है कि राजस्थान में इतनी विपुल एवं विशाल पाण्डुलिपियों एवं हस्तलिखित ग्रन्थोंकी गौरवपूर्ण परम्परा किन परिस्थितियोंमें जन्मी व पल्लवित हुई । भारतीय परम्पराके अनुसार, स्वाध्याय व अध्ययन आभ्यन्तर तपका जीवित रूप हैं । ज्ञान मोक्षका मार्ग है । अतः ज्ञानार्जन आध्यात्मिक अनुशासनका प्रमुख अंग रहा है । परिणाम स्वरूप, धर्माचार्यों द्वारा विपुल साहित्य सर्जित किया गया । वर्षा ऋतुमें एक स्थलपर टिककर चातुर्मास व्यतीत करना इस प्रकारके कार्यके निमित्त सर्वथा अनुकूल था । कागजके प्रादुर्भाविके पूर्व ताड़पत्र, भोजपत्र जैसे माध्यमों पर ग्रन्थ रचित हुये । श्रद्धालु श्रावकों एवं भक्तोंने भी अनेक ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ करा कर आचार्योंको पुण्यार्थ समर्पित किया । धनी-मानी लोगोंने सचित्र पाण्डुलिपियाँ निर्मित कराई । चौदहवीं शताब्दी में कागजके आगमनसे हस्तलिखित ग्रन्थोंकी संरचना और उनको प्रतिलिपियाँ तैयार करानेकी प्रक्रियाको अधिक गति मिली। जैन समाज इस दिशा में अग्रणी रहा । राजस्थान और गुजरातमें आज भी असंख्य हस्तलिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं । धार्मिक सहिष्णुता और औदार्य के वातावरण में साम्प्रदायिक धरातलसे ऊपर उठकर जैन समुदायने इतर धर्मोका भी संकलन अध्ययनार्थ अपने ज्ञान भण्डारोंमें किया । नवीन ग्रन्थोंकी रचना, प्राचीन ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि करवाना तथा ग्रन्थोंको खरीद कर आचार्योंको भेट करना धार्मिक कृत्यका महत्वपूर्ण अंग था। चौलुक्य नेरश सिद्धराज जयसिंह सिद्धमव्याकरणकी सवा लाख प्रतियाँ कराकर विभिन्न आचार्यों, विद्वानों एवं ज्ञान भण्डारोंको भेंट की । तथैव, कुमारपालने २१ शास्त्र भण्डारोंकी स्थापना की एवं उनमें से प्रत्येकको सुवर्णाक्षरी कल्पसूत्र की प्रतियाँ भेंट की । जैसलमेर के पटुवोंकी हवेलाके निर्माता बापना परिवारने वि० सं० १८९१ में सिद्धाचल तीर्थका विशाल संघ निकाला और इस अवसर पर जो अनेक महत्वपूर्ण धार्मिक कार्य सम्पन्न किये गये, उनमें पुस्तकोंका भण्डार करानेका धार्मिक कार्य एवं सम्पन्न किये गये उनमें पुस्तकों का भण्डार - ३४५ - ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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