Book Title: Rajasthan ki Jain Kala Author(s): Agarchand Nahta Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ राजस्थान की जैन कला १६५ ......... .........................................0000000000000veero.. भद्रबाहु सामी थया, तिण कीधी प्रतिष्ठो जी। आज सफल दिन माहरउ, ते प्रतिमा मइ दीठो जी ॥ ५॥ राजस्थान में पुराने जैन मन्दिर अब उसी रूप में नहीं रहे जिस रूप में वे बने थे, क्योंकि ज्यों-ज्यों मन्दिर जीर्ण होते गये, उनका जीर्णोद्धार करते गये, उनका परिवर्तन व परिवर्द्धन होता गया फिर भी कुछ अंश पुराना बचा होगा । अब उससे प्राचीन जैन मन्दिर और स्थापत्य कला के विकास का सही चित्र उपस्थित नहीं किया जा सकता। पर मूर्तियाँ जो भी प्राप्त हैं वे तो उसी रूप में विद्यमान हैं। इसीलिए उनके आधार पर मूर्तिकला में जो विकास और ह्रास हुआ है, उस पर कला मर्मज्ञों द्वारा अच्छा प्रकाश डाला जा सकता है। पाषाण की मूर्तियों में इतनी विविधता नहीं जितनी जैन धातु मूर्तियों में पाई जाती है। वास्तव में जैन तीर्थकरों की ही नहीं अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों में भी बहुत परिवर्तन दिखाई देता है। धातु की मूर्तियों में त्रितीर्थी, पंचतीर्थी, और चतुर्विशतिका (चौबीस) जैन मूर्तियाँ विविध प्रकार की पायी जाती हैं, आगे चलकर कला का ह्रास भी नजर आता है। पर आठवीं शताब्दी से ग्यारहवीं, बारहवीं शताब्दी की मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर हैं। तेरहवीं के बाद से कला में ह्रास शुरू होता है, यहाँ जैन मूर्तियों के सम्बन्ध में चर्चा करने का अवकाश नहीं है। जैन मन्दिर और मूर्ति निर्माण के सम्बध में जो वास्तुसार आदि ग्रंथ पाये जाते हैं उनकी अपेक्षा प्राप्त मूतियों की विविधता बहुत अधिक है। इसलिए जिस प्रकार गुजराती में 'गुजरात प्रतिमा विधान' नामक ग्रंथ निकला है, उसी तरह राजस्थान में तीर्थंकरों, देवी-देवताओं आदि की मूर्तियों के क्रमिक विकास का अध्ययन प्रकाश में आना चाहिए। मूर्तियों के अलंकरण रूप में जो पार्श्ववर्ती परिकर आदि की सुन्दर कला का विकास हुआ, विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सौभाग्य से जैन धातु मूर्तियाँ हजारों की संख्या में अब भी बच पाई हैं और वे आठवीं शताब्दी से लेकर अब तक की निरन्तर बनी हुई अच्छी संख्या में प्राप्त हैं। वैसे तो प्रत्येक मन्दिर में पाषाण मूर्तियों के साथ-साथ धातु मूर्तियां भी मिलती हैं, पर बीकानेर के चिन्तामणि मन्दिर और महावीर मन्दिर के भौंयरे में करीब १३५० मूर्तियाँ एक साथ देखने को मिल जाती हैं। इनमें से चिन्तामणि मन्दिर के भौंयरे में जो ११०० प्रतिमाएँ हैं उनमें से १०५० तो सं० १६३५ में तुरसमखान ने जो सिरोही में लूट की थी वहाँ से सम्राट अकबर के पास गई और वहाँ से सं० १६३६ में बीकानेर के महाराजा रायसिंह और मंत्री करमचन्द बच्छावत के प्रयत्न से यहाँ आई । इन प्रतिमाओं के लेख हमने बीकानेर जैन लेख संग्रह में प्रकाशित कर दिये हैं तथा साथ ही कुछ प्रतिमाओं के ग्रुप फोटो भी। इसी तरह वेदों के महावीर मन्दिर के एक गुप्त स्थान में २३५ धातु प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं, जिनमें से कुछ के ही लेख हम अपने संग्रह में ले सके हैं। सिरोही में भी एक जैन संग्रहालय में काफी जैन धातु मूर्तियों का संग्रह किया गया है, पर उन सबके लेख व फोटो प्रकाशित न होने से वे किन-किन संवतों की और कैसी विविधता वाली हैं, यह कहा नहीं जा सकता । वास्तव में जैन मूर्ति कला का अध्ययन केवल पाषाण मूर्तियों द्वारा ठीक से नहीं हो सकता। धातु मूर्तियों की खूबियों और विविधता को कलात्मक अध्ययन के लिए जानना बहुत ही आवश्यक है। कमलाकार पंखुड़ियों पर और बीच में जो एक सुन्दर जैन मूर्तियों का पुष्प मिलता है वह खिला हुआ मूर्ति पुष्प देखते ही मनुष्य का हृदय-कमल खिल उठता है। जैन देवी-देवताओं की मूर्तियों में पल्लू से प्राप्त पाषाण की दो सरस्वती मूर्तियाँ तो विश्वविख्यात हो चुकी हैं और उसी तरह की दिगम्बर मन्दिर की सरस्वती मूर्ति बहुत ही सुन्दर है और लेख युक्त है। जैन मूर्तिकला का एक विशिष्ट रूप जीवंत स्वामी की प्रतिमा है। प्राचीन उल्लेखों के अनुसार तो मालवा और राजस्थान आदि में कई जीवंत स्वामी की प्रतिमाएं प्रसिद्ध व पूज्य रही हैं। ये प्रतिमाएं अधिकांश लुप्त हो गई हैं । गुजरात में जो थोड़ी-सी जीवंत स्वामी की प्रतिमाएँ मिलती हैं उनमें से एक प्राचीन धातु प्रतिमा बहुत ही भव्य है। राजस्थान में जो पाषाण की विशाल प्रतिमाएँ मिली हैं वे मध्यकाल की होने पर भी बहुत ही आकर्षक और कलापूर्ण हैं । उनमें से नागौर के निकटवर्ती खींवसर से प्राप्त जीवंत स्वामी की लेख युक्त प्रतिमा तो अब जोधपुर के जैनकक्ष की शोभा बढ़ा रही है। पर अभी-अभी ओसियां के महावीर मन्दिर में खण्डित जीवंत स्वामी की तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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