Book Title: Rajasthan ke Shilalekho ka Vargikaran
Author(s): Ramvallabh Somani
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 10
________________ माता मंदिरके बाहरका सुरहलख, महाराणा हमीरसिंह (ii) के समयके रामपोलके 2 लेख एवं अन्नपर्णा मन्दिरके बाहरके सुरहलेख मुख्य हैं। इन सारे लेखोंको मैंने सम्पादित करके प्रकाशित कराये हैं। एकलिंग मन्दिरके बाहर महाराणा भीमसिंह और सज्जनसिंहके समय के 5 सुरहलेख हैं। उदयपुर शहरमें महाराणा अरिसिंहके समयका सुरहलेख मुख्य है। भीनमालमें महाराजा मानसिंहके समयका एवं मंडोरमें महाराजा तख्तसिंहके समयके सुरहलेख भी प्रसिद्ध हैं। इन लेखोंसे तत्कालीन शासनव्यवस्थाके सम्बन्धमें प्रचुर सामग्री मिलती है। स्थानीय अधिकारियोंके नाम, पद एवं स्थानीय कर जैसे, दाग, मुंडिककर, बलाबीकर, रखवालीकर, घरगणतीकर, आदि का पूरा पूरा व्यौरा रहता है / चित्तौड़, उदयपुर आदिके सुरहलेखोंमें मराठोंके आक्रमणोंका अच्छा वर्णन है / मराठा अधिकारीका सुरहलेख भी चार भुजाके मन्दिरसे सं० 1867 का एवं गंगापुर (भीलवाड़ा) से सं० 1862 का मिला है। धार्मिक लेखोंमें मन्दिरकी व्यवस्था सम्बन्धी उल्लेख मिलता है। मन्दिरोंके लिए प्रायः गौष्ठिक बने रहते थे जो व्यवस्था करते थे। इनका उल्लेख 7 वीं शताब्दीके गोठ मांग लोदके लेख, खण्डेलाके हर्ष सं० 201 के लेख, बसंतगढ़ के 682 के लेख, सिकरायका 879 के लेख आदिमें होनेसे पता चलता है कि राजस्थान में ७वीं शताब्दीके पहलेसे ही ऐसी व्यवस्था मौजूद थी। मन्दिर या धार्मिक संस्थानोंकी व्यवस्थाके निमित दानपत्रोंके रूपमें भी कई लेख मिले हैं। इनमें स्थानीय संस्थानोंसे कर लेकर मन्दिरको दिया जाता था। यह कार्य मण्डपिकाके द्वारा होता था। आहडका सं० 1010 का लेख, सं० 999 एवं 1003 का प्रतापगढ़ का लेख, शेरगढ़ दुर्गके लघु लेख, आदि उल्लेखनीय है / सम्राट अशोकके बैराठके लेखोंमें धार्मिक आज्ञाओं एवं धर्मग्रन्थोंका उल्लेख है। __ मूर्ति लेखोंमें मुख्यरूपसे जैनलेख आते हैं। राजस्थानसे ऐसे कई हजार मिल चुके हैं / इनमें बीकानेर क्षेत्रके लेख श्री नाहटाजीने सम्पादित किये हैं। पुण्यविजयजोने आबू क्षेत्रके लेख प्रकाशित किये हैं / श्री पूर्णचन्द्र नाहरने जैसलमेर एवं अन्य क्षेत्रोंके लेख सम्पादित किये हैं। दिगम्बर लेखोंमें ऐसा विशिष्ट प्रकाशन मूर्ति लेखोंका नहीं हुआ है इन लेखोंमें प्रारम्भमें अर्हत्का उल्लेख होता है। बादमें संवत् बना रहता है। इसके बाद लेख में स्थानीय राजाका उल्लेख रहता है। मूर्ति लेखमें राजा का उल्लेख होना आवश्यक नहीं है। कई बार इसे छोड़ भी दिया जाता है। इसके बाद मूर्ति बनवानेवाले श्रेष्ठिका परिचय रहता है। उसके गाँवका नाम, पूर्वजोंका वर्णन, मूर्तिका वर्णन एवं जैन आचार्य, जिनके द्वारा प्रतिष्ठा की गयी हो, का वर्णन रहता है। कई बार मूर्ति बनानेवाले शिल्पीका नाम भी रहता है। संवत् कई बार बादमें मिलता है। मूर्ति लेखोंमें एक विशिष्ट बात यह है कि उस समयके नाम प्रायः एकाक्षर बोधक होते थे। मूर्ति लेखोंमें प्रायः बोली में आनेवाले शब्दोंका ही प्रयोग किया गया है जो उल्लेखनीय है / कई बार श्रेष्ठियों और उनकी पत्नियोंके नाम एकसे मिलते हैं जैसे मोहण-मोहणी आदि / बहुपत्नीवादकी प्रथाकी ओर भी इनसे दृष्टि डाली जा सकती है। जैनियोंके विभिन्न गोत्रों आदि जैन साधुगच्छोंपर भी विस्तारसे इन मूर्ति लेखों द्वारा अध्ययन किया जा सकता है। ये मूर्ति लेख इस दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं / राजस्थानमें कांस्य मूर्तियोंके लेख ७वीं, ८वीं शताब्दीसे मिलने लग गये हैं किन्तु पत्थरकी प्रतिमाओंपर ९००के बादके ही लेख अधिक मिलते हैं। राजपूत राजाओंके शासनकालमें १०वीं शताब्दीके बाद जैन श्रेष्ठियोंने अभूतपूर्व शासनमें योगदान दिया इसके फलस्वरूप जैन धर्मकी बड़ी उनति हुई। मूर्ति लेखोंसे एक बार प्रतिष्ठित हई प्रतिमाके दुबारा प्रतिष्ठित होनेके भी रोचक वर्णन मिलते हैं / 1. शोधपत्रिका वर्ष 21 अंक 1 में प्रकाशित मेरा लेख / 2. मज्झमिका (1971) पृ० 104 से 110 / 132 : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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