Book Title: Rajasthan ka Jain Sanskrut Sahitya Author(s): Premchand Ranvaka Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 2
________________ राजस्थान का जैन संस्कृत साहित्य ४४३ .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................ स्थान-स्थान पर ग्रन्थागार स्थापित किये। यही कारण है कि आज राजस्थान के अन्य भण्डारों में विविध भाषा के विविध विषयक तीन लाख के लगभग ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। ये ग्रन्थ भण्डार भारतीय वाङ्मय के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। भारतीय वाङ्मय का अधिकांश भाग इन्हीं भण्डारों में सुरक्षित है। भारतीय संस्कृति के विभिन्न अंगों की भाँति साहित्य के उन्नयन तथा विकास में भी राजस्थान ने मूल्यवान योगदान दिया है। जैन बहुलप्रदेश होने के नाते संस्कृत महाकाव्य की समृद्धि में जैन कवियों ने श्लाघ्य प्रयत्न किया है। डॉ. सत्यव्रत ने ठीक ही कहा है, "यह सुखद आश्चर्य है कि जैन साधकों ने अपने दीक्षित जीवन तथा निश्चित दृष्टिकोण की परिधि में बद्ध होते हुए भी साहित्य के व्यापक क्षेत्र में झांकने का साहस किया, जिसके फलस्वरूप वे साहित्य की विभिन्न विधाओं एवं उसकी विभिन्न शैलियों की रचनाओं से भारती के कोश को समृद्ध बनाने में सफल हुए हैं।" भारतीय संस्कृत वाङ्मय का अधिकांश भाग जैन-ग्रन्थ भण्डारों में सुरक्षित है। जैसलमेर, नागौर एवं बीकानेर के ग्रन्थागार इस तथ्य के साक्षी हैं। इन ग्रन्थागारों के द्वारा संस्कृत साहित्य के इतिहास की कड़ियाँ प्रकाश में आ सकी हैं । एक विद्वान् के शब्दों में-"संस्कृत के सुकृतो रचनाकारों के साथ-साथ हमें महामना जैन मुनियों का भी ऋणी होना चाहिए, जिन्होंने अपने संस्कृतानुराग के कारण कई दुर्लभ एवं विस्मत संस्कृत ग्रन्थों को अपनी ममतामयी कोड़ में स्थान देकर उन्हें काल के भयंकर थपेड़ों से और इतिहास की खूखार तलवार से बचाये रखा।"४ इससे कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि राजस्थान में संस्कृत साहित्य के संरक्षण, संवर्द्धन एवं सम्पोषण में जैनाचार्यों, सन्तों एवं विद्वानों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। राजस्थान में जैन कवियों ने संस्कृत भाषा में साहित्य की प्रत्येक विधा में-दर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य, चरितकाव्य, पुराण, नाटक, कथा, स्तोत्र, पूजा, भाषाशास्त्र आदि विषयों पर ग्रन्थ रचे ।। राजस्थान में १०वीं शताब्दी से पूर्व ही साहित्य-प्रेमी जैन-कवियों की लेखनी से अनेक ग्रन्थ प्रसूत हुए । इस परम्परा में राजस्थान जैन संस्कृत साहित्य के प्रथम निर्माता हरिभद्रसूरि थे। उनका सम्बन्ध चित्तौड़ से था और अस्तित्वकाल वि० की ८-6वीं शताब्दी । हरिभद्रसूरि का प्राकृत एवं संस्कृत दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। दोनों ही भाषाओं में उनकी विपुल रचनाएँ मिलती हैं। उन्होंने धर्म, योग, दर्शन, न्याय, अनेकान्त, आचार, अहिंसा के साथ ही आगम सूत्रों पर भी विशाल ग्रन्थ लिखे । प्रमुख ग्रन्थों में अनुयोगद्वारसूत्र-टीका, आवश्यकसूत्र-टीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र-टीका, अनेकान्तवादप्रवेश, न्यायविनिश्चय, सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण, योगदृष्टि समुच्चय, योगशतक, समराइच्चकहा आदि हैं । योग-रचनाओं में जैन योग और पतंजलि की योगपद्धति का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। अनेकान्त दृष्टि प्राप्त होने पर साम्प्रदायिक अभिनिवेश समाप्त हो जाता है। हरिभद्र सूरि ने प्रथम बार आगम की व्याख्या संस्कृत में लिखी। हरिभद्र सरि के पश्चात् 'सिषि' की महान् कृति 'उपमितिभवप्रपंचकथा' है, जो वि० सं० ६८२ में लिखी 1 Jain Granth Bhandars in Rajasthan : Introduction -Dr. Kastur Chand Kasliwal. २ श्री के० सी जैन : जैनिज्म इन राजस्थान ३ जैन संस्कृत महाकाव्य-राजस्थान का जैन साहित्य, पृ० ११७. ४ डॉ० हरिराम आचार्य : राजस्थान में संस्कृत साहित्य की परम्परा, राष्ट्रीय संस्कृत शिक्षा सम्मेलनम् : स्मारिका, १९७८ । ५ मुनिश्री नथमल : संस्कृत साहित्य : विकास एवं प्रवृत्तियाँ (राजस्थान), जैन साहित्य, पृ० ५६ ६ वही, Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5