Book Title: Rag Ka Urdhvikaran Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 5
________________ बड़े जोश में ललकार कर कहा--"पुद्गल पर-भाव है, आत्मा का शत्रु है। इसे लात मारो, तभी मक्ति होगी।" व्याख्यान दे कर उठे, गोचरी का समय हुआ, तो पान संभाले और पहले विराजित एक स्थानीय बुजुर्ग सन्त से बोले--"तपसीजी! कुछ ऐसे घरों में ले चलो, जहाँ पुद्गलों की साता हो।" साधु-जनों की सांकेतिक भाषा में पुद्गलों से उनका मतलब था, कि आहारपानी अच्छा और साताकारी तर-माल मिले। तपसीजी मुस्करा कर बोले-"भाई ! अभी ही कुछ देर पहले तो आप पुदगल को लात मार रहे थे, अब पुद्गल की साता की बात करने लगे, यह क्या तमाशा है ?" कुछ उत्तर न था, वैराग्य' का नाटक खेलने वाले मुनिजी के पास । यही तो वीतरागता का नाटक है। जब हम जीवन में अपने लिए वीतरागी नहीं बन सकते, अपने शरीर की साता और मोह को नहीं छोड़ सकते, तो फिर केवल दूसरों के प्रति उदासीन और निस्पृह होने की बात कहने से क्या लाभ है ? जीवन-व्यवहार में सरलता आनी चाहिए, सचाई को स्वीकार करने का साहस होना चाहिए। और, यह मानना चाहिए कि जिन आदर्शों तक पहुँचने में हमें अभी तक कठिनाई अनुभव होती है, तो दूसरों को भी अवश्य ही होती होगी। फिर उस कठिनाई के बीच का मार्ग क्यों नहीं अपनाया जाए? धर्म का मुख्य रूप वीतरागता है, वह लक्ष्य में रहना चाहिए। उस ओर यात्रा चाल रखनी चाहिए। परन्तु, जब तक वह सहज भाव से जीवन में न उतरे, तब तक धर्म का गौण रूप शुभभाव भी यथाप्रसंग होता रहना चाहिए। निर्विकल्पता न आए, तो शुभ विकल्प का ही आश्रय लेना चाहिए, अशुभ विकल्प से बचना चाहिए। गणधर गौतम की बात अभी हमारे सामने है। इतना बड़ा साधक, तपस्वी जिसके लिए भगवती सूत्र में कहा है-'उम्गतवे घोरतवे दित्ततवे--तपस्वियों में भी जो उत्कृष्ट थे और ज्ञानियों में भी! उन्होंने जब अपने ही शिष्यों को केवली होते देखा, तो वे मन में क्षोभ और निराशा से क्लांत हो गए और सोचने लगे कि-"यह क्या ? मुझे अभी भी केवलज्ञान नहीं हो रहा है और मेरे शिष्य केवली हो रहे हैं, मुक्त हो रहे हैं?" भगवान् महावीर ने गौतम के क्षोभ को शान्त करते हुए कहा-"गौतम ! तुम्हारे मन में अभी तक मोह और स्नेह का बंधन है।" गौतम ने पूछा-"किसके साथ ?" भगवान् ने कहा- "मेरे प्रति ! मेरे व्यक्तित्व के प्रति तुम्हारे मन में एक सूक्ष्म अनुराग, जो जन्म-जन्मान्तर से चला आ रहा है, वह राग-स्नेह ही तुम्हारी मुक्ति में बाधक बन रहा है।" गौतम यह सब-कुछ जानकर भी भगवान् के प्रति अपना प्रेमराग छोड़ नहीं पाए। और, आप देखते हैं कि गौतम का वह अनराग भगवान के निर्वाण के समय इतना प्रबल हो जाता है कि अाँसुओं के रूप में बाहर बह पाता है। इसे हमारे कुछ साथी मोह बताकर एकान्त अशुभ एवं दूषित कह सकते हैं, परन्तु मैं तो इसे मोह मान कर भी एकान्त अशुभ नहीं मान सकता । यह भक्ति-विभोर भक्त-हृदय की अमुक अंश में शुभ परिणति है। यह मानव हृदय की एक स्नेहात्मक स्थिति है, गुणातुराग की वृत्ति है। आँसू केवल शोक के ही आँसू नहीं होते, भक्ति और प्रेम के भी आँसू होते हैं, करुणा के भी आँसू होते हैं। मनुष्य समाज में अकेला नहीं जीता, उसके साथ परिवार होता है, समाज होता है, संघ होता है। वह सूखे वृक्ष की भाँति निरपेक्ष तथा निश्चेष्ट रह कर यों ही शुन्य में कैसे जी सकता है ? उसके मन में पास-पड़ोस की घटनाओं की प्रतिक्रिया अवश्य होती है। यदि आपकी चेतना का ऊर्ध्वमुखी विकास हो रहा है, तो आप किसी को प्रगतिपथ पर बढ़ते देखकर, किसी के व्यक्तित्व को विकसित होते देखकर मुस्करा उठेंगे, दूसरों की प्रसन्नता से प्रसन्न हो जाएंगे, दूसरों के गुणों पर कमल-पुष्प की भाँति प्रफुल्ल हो जाएंगे। राग का ऊर्वीकरण Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7