Book Title: Purush Prajapati Author(s): Vasudevsharan Agarwal Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ ५२० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय 'वन' के भीतर एक-एक विश्व एक-एक अश्वत्थ वृक्ष के समान है. इस प्रकार के अनन्त अश्वत्थ उस सहस्रात्मा 'वन' नामक प्रजापति में हैं. उसके केन्द्र की जो धारा सृष्ट्युन्मुख होकर प्रवृत्त होती है, उसी मूलकेन्द्र से केन्द्रपरम्परा विकसित होती हुई पुरुष तक आती है. केन्द्रों के इस वितान में पूर्व केन्द्र की प्रतिमा या प्रतिबिम्ब उतर के केन्द्र में आता है. इस प्रकार जो सहस्रात्मा प्रजापति है, वही मूल से तूल में आता हुआ ठीक-ठीक अपने सम्पूर्ण स्वरूप के साथ इस पुरुष में अवतीर्ण होता है और हो रहा है. वैदिक महर्षियों ने ध्यान योग्यतानुगत हो कर उस महान् तत्त्व का साक्षात्कार किया और सृष्टिपरम्परा का विचार करते हुए उन्हें यह साक्षात् अनुभब हुआ कि यह जो पुरुष है, वह इसी सहस्रात्मा प्रजापति की सच्ची प्रतिमा है- पुरुषो वै सहस्रस्य प्रतिमा-शत० ७. ५. २. १७. जो सहस्त्र प्रजापति है, उसी के अनन्त अव्यक्त स्वरूप में किन्हीं अचिन्त्य अप्रतयं बलों के संघर्षण से या ग्रन्थिबन्धन से या स्पन्दन से सृष्टि की प्रक्रिया प्रवृत्त होती है. किसी भी प्रकार की शक्ति या वेग हो, उसके लिये बलग्रन्थि आवश्यक है. विना बलग्रन्थि के अव्यक्त व्यक्तभाव में, अमूर्त मूर्तरूप में आ ही नहीं सकता. शुद्ध रसरूप प्रजापति में अमितभाव की प्रधानता है, उसमें जब तक मितभाव का उदय न हो, तब तक सृष्टि की सम्भावना नहीं होती. प्रजापति के केन्द्र से जिस रस का वितान या विस्तार होता है, वह यदि बाहर की ओर ही फैलता जाये तो कोई ग्रन्थि-सृष्टि संभव नहीं. वह इस परिधि की ओर फैल कर जब बल के रूप केन्द्र की ओर लौटता है. तब द्विविरुद्ध भावों की टक्कर से स्थिति और गति या गति और आगतिरूप स्पन्दन का चक्र जन्म लेता है. स्पन्दन का नाम प्रजापति है. स्पन्दन को वैदिक परिभाषा में छन्द कहते हैं. जो छन्द है, वही प्रजापति है. किसी भी प्रकार की फड़कन का नाम छन्द है. सारे विश्व में द्विविरुद्ध भाव से समुत्पन्न जहाँ-जहाँ छन्द या फड़कन है, वही प्रजापति के स्वरूप का तारतम्य दृष्टिगोचर होता है. अतएव एक महान् सत्य सूत्ररूप में इस प्रकार व्यक्त किया गया : __ 'प्रजापतिरेव छन्दो भवत्'-शत० ८. २. ३. १०. सृष्टि की महती प्रक्रिया में अनेक लोकों में अनेक स्तरों पर प्रजापति के इस छन्द की अभिव्यक्ति हो रही है. उसी छन्दोवितान में सहस्रात्मा प्रजापति पुरुषरूप में अभिव्यक्त होता है. सूर्य भी उसी केन्द्रपरम्परा का एक बिन्दु है. ऐसे पूर्वयुग की कल्पना करें, जब सब कुछ तमोभूत था, अलक्षण था, और अप्रज्ञात था. उस समय रस और बल के तारतम्य से जो शक्ति का संघर्षण होने लगा, संघर्षण उसी के फलस्वरूप ज्योतिष्मान् महान् आदित्यों का जन्म हुआ. वैज्ञानिक भाषा में इसी को यों सोचा और कहा जा सकता है कि आरम्भ में शक्ति के समान वितरण के फलस्वरूप एक शान्त समुद्र भरा हुआ था. शक्ति के उस शान्त सागर में न कोइ तरंग थी, न क्षोभ था. किन्तु न जाने कहाँ से, कैसे, क्यों और कब उसमें तरंगों का स्पन्दन आरम्भ हुआ और उस संघर्ष के फलस्वरूप जो शक्ति समरूप में फैली हुई थी उसमें केन्द्र या बिन्दु उत्पन्न होने लगे, जो कि प्रकाश और तेज के पुञ्ज बन गए. इस प्रकार के न जाने कितने सूर्य शक्ति की उस प्राक्कालीन गभित अवस्था में उत्पन्न हुए. वैदिकभाषा में व्यक्त की संज्ञा हिरण्य है, अव्यक्त अवस्था हिरण्यगर्भ अवस्था थी. समभाव से वितरित शक्ति की पूर्वावस्था वही हिरण्यगर्भ अवस्था थी, जिसमें यह व्यक्त हिरण्यभाव समाया हुआ था. आगे का व्यक्तभाव उसी के पूर्व अव्यक्त में लीन था. यदि सदा काल तक शक्ति की वही साम्यावस्था बनी रहती तो किसी प्रकार का व्यक्तभाव उत्पन्न ही न होता. शक्ति के वैषम्य से ही महान् आदित्य जैसे केन्द्र या बिन्दु उस शान्तशक्ति समुद्र में उत्पन्न होने लगे. पहली शान्त अवस्था के लिये वेद में संयती शब्द है और दूसरी व्यक्तभावापन्न क्षुब्ध अवस्था के लिये क्रन्दसी शब्द है, संयती शान्त आत्मा है. क्रन्दसी क्षुभित आत्मा है. शक्ति के उस समुद्र में जो क्षुभित केन्द्र उत्पन्न हुए, उन्हीं की संज्ञा सूर्य हुई. हमारे सौर-मण्डल का सूर्य भी उन्हीं में से एक है. प्रत्येक आदित्य या सूर्य सहस्रात्मा प्रजापति की प्रतिमा है और वह भी ऐसी प्रतिमा है जो विश्वरूपी है, जिसमें सब रूपों की समष्टि है, जिसके मूलकेन्द्र से सब रूपों का निर्माण होता है. उसी के लिये कहा है : . आदित्यं गर्भ पयसा समधि सहस्रस्य प्रतिमां श्विवरूपम्. यजुः १३.४१. शक्ति के शान्त महासमुद्र में जो आदित्य उत्पन्न हुआ, वह प्रजापति का शिशुरूप था. उसके पोषण के लिये पय या दुग्ध .. . . .. COM 0.OON ROOOOO ...... ..... COL ... SH ................................. ...OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO Jain durcarmoninemamornar For Private & Personal Use Only OD www.jhinelibrary.orgPage Navigation
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