Book Title: Punya aur Pap ka Shastriya Drushtikon Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf View full book textPage 4
________________ आचार्य अमृतचंद्रने इन गाथाओंका मर्म बड़ी विशदतासे उद्घाटित किया है, जो उनकी टोकासे ज्ञातव्य है। यहाँ हम उनके दो दृष्टान्तोंको उपस्थित करनेका लोभ संवरण नहीं कर सकते । एक दृष्टान्त द्वारा उन्होंने बताया है कि जैसे कोई व्यक्ति ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होकर उसे अपने ब्राह्मणत्वका अभिमान हो जाता है और कोई शूद्र कुलमें पैदा होकर वह उसके अहंकारसे नहीं बचता। परन्तु वे दोनों यह भूल जाते हैं कि उनकी जाति तो आखिर एक ही है-दोनों ही मनुष्य हैं । उसी तरह पुण्य और पाप कहनेको भले ही वे दो हों, किन्तु हैं दोनों ही एक ही पुद्गलको उपज । दूसरे दृष्टान्त द्वारा आ० अमृतचन्द्र कहते हैं कि जिस प्रकार एक हाथीको बाँधने के लिए मनोरम अथवा अमनोरम हथिनियाँ उसपर कूटनीतिका जाल फेंक उसे बाँध लेती हैं और वह हाथी अज्ञानतासे उनके शिकंजे में आ जाता है, उसी प्रकार शुभकर्म और अशुभकर्म भी जीवपर अपना लुभावना जाल डालकर उसे बन्धन में डाल देते हैं और जीव अज्ञानतासे उनके जालमें फंस जाता है। तात्पर्य यह कि पुण्य और पाप दोनों ही जीवके सजातीय नहीं हैं---वे उसके विजा. तीय हैं और एकजाति--पुद्गलके वे दो परिणाम हैं। तथा दोनों ही जीवके बन्धन हैं। इनमें इतना ही अन्तर है कि एकको शुभ (पुण्य) कहा जाता है और दूसरेको अशुभ (पाप) । पर कर्म दोनों ही हैं । और दोनों ही बन्धनकारक है। जैसे सोनेको बेड़ा और लोहेको बेड़ी। बेड़ी दोनों हैं और दोनों ही पुरुषकी स्वतन्त्रताका अपहरण करके उसे बन्धनमें डालती हैं। आ० गृद्धपिच्छने भी पुण्य और पाप दोनोंको कर्म (बन्धनकारक पुद्गलका परिणाम) कहा है और ज्ञानावरणादि आठों अथवा उनकी एकसौ अड़तालीस प्रकृतियोंको पुण्य तथा पापमें विभक्त किया है। उनके वे सूत्र इस प्रकार हैं १. सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् । २.. अतोऽन्यत्पापम् ।' दूसरे कुछ आचार्योंका भी पुण्य-पाप विषयक निरूपण यहाँ उपस्थित है--- आ० योगीन्दुदेव योगसारमें लिखते हैं पुण्यसे जीव स्वर्ग पाता है और पापसे नरक में जाता है। जो इन दोनों (पुण्य और पाप) को छोड़कर आत्माको जानता है वही मोक्ष पाता है । (गा० दो० ३२) जबतक जीवको एक परमशुद्ध पवित्र भावका ज्ञान नहीं होता तबतक व्रत, तप, संयम और शील ये सब कुछ भी कार्यकारी नहीं होते। (गा० दो० ३१) पापको पाप तो सभी जानते और कहते हैं । परन्तु जो पुण्यको भी पाप कहता है, ऐसा पण्डित कोई विरला ही होता है । __(दो, ७१) जैसे लोहेकी सांकल, सांकल (बन्धनकारक) है उसी तरह सोनेकी सांकल भी सांकल (बन्धनकारक) है। यथार्थमें जो शुभ और अशुभ दोनों भावोंका त्याग कर देते हैं वे ही ज्ञानी हैं । (दो० ७२) परमात्मप्रकाशमें भी आ० योगीन्दुदेव पुण्य और पापको विस्तृत चर्चा करते हुए कहते हैं जो व्यक्ति विभाव परिणामको बंधका और स्वभाव परिणामको मोक्षका कारण नहीं समझता वही अज्ञानसे पुण्यको भी और पापको भी दोनोंको ही करता है। (२-५३) जो जीव पण्य और पाप दोनोंको समान नहीं मानता वह मोहके कारण चिरकाल तक दुःख सहता हुमा संसारमें भटकता है। (२-५५) १. वत्त्वार्थसू• ८।२५, २६ । -१२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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