Book Title: Pt Mahendrakumar Sampadit Shaddarshan Samucchay ki Samiksha Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 1
________________ पं० महेन्द्रकुमार 'न्यायाचार्य' के द्वारा सम्पादित एवं अनूदित 'षड्दर्शनसमुच्चय' की समीक्षा पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य के वैदुष्य को समझना हो, उनकी प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना हो तो हमें उनकी कृतियों का अवलोकन करना होगा। उनके द्वारा सम्पादित, अनूदित और रचित कृतियों से ही उनके प्रतिभाशील व्यक्तित्व का परिचय मिल जाता है, जिनमें समदर्शी आचार्य हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय' और उसकी गुणरत्न की टीका का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी यह कृति भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ( वर्तमान में देहली ) से सन् १९६९ में उनके स्वर्गवास के दस वर्ष पश्चात् प्रकाशित हुई है। उनकी इस कृति पर उनके अभिन्न मित्र एवं साथी की विस्तृत भूमिका है। प्रस्तुत समीक्षा में उन पक्षों पर जिन पर पं० दलसुखभाई की भूमिका में उल्लेख हुआ है, चर्चा नहीं करते हुए मैंने मुख्यत: उनकी अनुवाद शैली को ही समीक्षा का आधार बनाया है। यदि हम भारतीय दर्शन के इतिहास में सभी प्रमुख दर्शनों के सिद्धान्तों को एक ही ग्रन्थ में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने हेतु किये गए प्रयत्नों को देखते हैं, तो हमारी दृष्टि में हरिभद्र ही वे प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने समय के प्रमुख सभी भारतीय दर्शनों को निष्पक्ष रूप से एक ही ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है । हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय' को कोटि का कोई अन्य दर्शन संग्राहक प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि हरिभद्र के पूर्व और हरिभद्र के पश्चात् भी अपने-अपने ग्रन्थों में विविध दार्शनिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने का कार्य अनेक जैन एवं जैनेतर आचार्यों ने किया है, किन्तु उन सबका उद्देश्य अन्य दर्शनों की समीक्षा कर अपने दर्शन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करना ही रहा है, चाहे फिर वह मल्लवादी का द्वादशारनयचक्र हो या आचार्य शंकर का सर्वसिद्धान्तसंग्रह या मध्वाचार्य का सर्वदर्शनसंग्रह । इन ग्रन्थों में पूर्वदर्शन का उन्हीं दर्शनों के द्वारा निराकरण करते हुए, अन्त में अपने सिद्धान्त की सर्वोपरिता या श्रेष्ठता की स्थापना की गई है। इसी प्रकार का एक प्रयत्न जैनदर्शन में हरिभद्र के लगभग तीन वर्ष पूर्व पाँचवी शताब्दी में मल्लवादी के नयचक्र में भी देखा जा सकता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education InternationalPage Navigation
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