Book Title: Pravachanasara me Samsar aur Moksha ka Swarup Author(s): Rameshchandra Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 4
________________ जैन दर्शन में भी अर्हन्तावस्था में वेदनीय कर्म का सद्भाव बतलाया गया है, किन्तु मोह (तृष्णा) कर्म के अभाव के कारण वह वेदनीय कर्म कुछ भी फल देने में समर्थ नहीं हो पाता है। अविद्या अथवा मिथ्यात्व के अभाव के कारण मोह नहीं रहता है। जहां तक इन्द्रियां हैं वहां तक स्वभाव से ही दुःख है-जिन्हें विषयों में रति है, उन्हें स्वाभाविक दुःख है। यदि वह दुःख स्वभाव न हो तो विषयार्थ में व्यापार न हो।' धम्मपद में भगवान बुद्ध ने कहा है कि जिनके चित्त में बहुत संकल्प विकल्प होते हैं और जिसके तीव्रराग होता है, वह सत्त्व शुभ ही शुभ देखता है, उसकी तृष्णा बढ़ती है। वह अपने बन्धन और अधिक दृढ़ करता है। आगे और भी कहा गया है जो राग में रत है, वह मकड़ी के द्वारा अपने बनाए हुए जाले की तरह प्रवाह में फंसे हुए हैं। तृष्णा रूपी सरिता स्निग्ध होती है, सत्त्वों के चित्त को अच्छी लगती है। इनके बन्धन में बंधे सत्त्व आनन्द की खोज करते हैं। भगवान् सदैव ही सत्त्वों को इस अंकुरित होने वाली तृष्णा लता को प्रज्ञारूपी कुठार से काटने की प्रेरणा देते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों का एक प्रकार से निषेध किया है। वे कहते हैं-उपयोग यदि शुभ हो तो जीव का पुण्य तथा अशुभ हो तो पाप संचय को प्राप्त होता है। इन दोनों के अभाव में संचय नहीं होता । आत्मा ही सुख दुःख रूप होती है, देह नहीं-स्पर्शनादिक इन्द्रियां जिनका आश्रय लेती हैं ऐसे इष्ट विषयों को पाकर (अपने शुद्ध) स्वभाव से परिणमन करता हुआ आत्मा स्वयं ही सुखरूप (इन्द्रिय सुख रूप) होता है, देह सुख रूप नहीं होता।' एकांत से अर्थात् नियम से स्वर्ग में भी शरीर शरीरी (आत्मा) को सुख नहीं देता, परन्तु विषयों के वश से सुख अथवा दुःख रूप स्वयं आत्मा होता है । यदि प्राणी की दृष्टि तिमिरनाशक हो तो दीपक से कोई प्रयोजन नहीं है अर्थात् दीपक कुछ नहीं कर सकता। उसी प्रकार जहां आत्मा स्वयं सुखरूप परिणमन करता है, वहां विषय क्या कर सकते हैं ? इन्द्रिय सुख दुःख ही है-जो इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह सुख परसम्बन्धयुक्त बाधासहित, विच्छिन्न, बन्ध का कारण और विषम है, इस प्रकार वह दुःख ही है। तात्पर्य यह कि इन्द्रियसुख को परद्रव्य की अपेक्षा होती है, अतः वह सपर है। पारमार्थिक सुख परद्रव्य से निरपेक्ष आत्माधीन होता है। तीव्र क्षुधा, तृष्णा आदि अनेक बाधाओं सहित होने के कारण इन्द्रियसुख बाधासहित है। निजात्मसुख पूर्वोक्त समस्त बाधाओं से रहित होने के कारण अव्याबाघ है। इन्द्रियसुख प्रतिपक्षभूत असातावेदनीय कर्म के उदय से विच्छिन्न होता है, इसके विपरीत अतीन्द्रियसुख प्रतिपक्षभूत असातावेदनीय कर्म के अभाव से निरन्तर होता है। दृष्ट, श्रुत और अनुभूत भोगाकांक्षा प्रभृति अनेक अपध्यान के वश से भावी नरक दुःखों के उत्पादक कर्म बन्ध का उत्पादक होने से इन्द्रिय सुख बन्ध का कारण है, अतीन्द्रिय सुख समस्त बुरे ध्यानों से रहित होने के कारण बन्ध का कारण नहीं है । इन्द्रिय सुख में परम शान्ति नहीं रहती अथवा उसमें हानिवृद्धि होती रहती है, अतः वह विषम है। अतीन्द्रिय सुख परमतृप्तिकर तथा हानि और वृद्धि से रहित है । इस प्रकार इन्द्रियों से लब्ध संसार सुख दुःख रूप ही है। आत्मज्ञान का उपाय----जो अरहन्त को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने से जानता है, वह आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य क्षय को प्राप्त होता है। जिसने मोह को दूर किया है और आत्मा के सम्यक् तत्त्व को प्राप्त किया है, ऐसा जीव यदि राग द्वेष को छोड़ता है तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है। राग, द्वेष तथा मोह क्षय करने योग्य क्यों हैं ?-मोहरूप, रागरूप अथवा द्वेषरूप परिणमित जीव का विविध बन्ध होता है, इसलिए वे सम्पूर्णतया क्षय करने योग्य हैं। सांख्य दर्शन में माने गए सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण प्रीति, अप्रीति तथा विषादात्मक हैं।" तत्वकौमुदीकार ने प्रीति का अर्थ सुख, अप्रीति का अर्थ दुःख तथा विषाद का अर्थ मोह किया है। ये तीनों जैन दर्शन में कहे हुए राग, द्वेष और मोह ही हैं । आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार राग, द्वेष और मोह सम्यग्दृष्टि के नहीं हैं। इसीलिए आस्रवभाव के बिना द्रव्य-प्रत्यय कर्म १. प्रवचनसार, ६४ २. 'ये रागरत्तानुपतन्ति सोत सपंकतं मक्कटको व जालं ॥', धम्मपद, ३४७; ३४१ व ३४० ३. प्रवचनसार, १५६ ४. वही, ६५ ५. 'एगतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा। विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा ।।', वही, ६६ ६. वही, ६७ ७. वही, ७६ ८. वही, तात्पर्यवृत्ति, ७६ है. प्रवचनसार, तात्पर्यवत्ति, ८०-८१ १०. वही, ८४ ११. सांख्यकारिका, १२ १२. सांख्यतत्वकौमुदीव्याख्या, कारिका १२ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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