Book Title: Pratikraman ki Upadeyta Author(s): Arun Mehta Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 3
________________ 92 || जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 प्रतिक्रमण करने की उपयोगिता नहीं है। वर्ष भर में किये हुए पापों-अतिचारों का ध्यान वर्ष के अंत में एक साथ नहीं आ सकता। स्मरण-शक्ति कमजोर होने से बहुत सारे पाप आलोचना एवं शोधन करने से रह सकते हैं। जिस प्रकार यदि घर का सारा कचरा सिर्फ दीपावली के दिन ही साफ करें व वर्ष भर एकत्रित होने दें तो क्या स्थिति होगी, हम समझ सकते हैं। अतः प्रतिक्रमण जितना शीघ्र किया जाये उतना ही अच्छा है, इससे मन की कलुषता शीघ्रता से समाप्त हो जाती है। आगम में बताया गया है कि साधु को प्रमादवश यदि कोई अतिचार-दोष लग जाये, परस्पर कलह हो जाये तब तुरन्त उसकी शुद्धि करना आवश्यक है। जब तक वह साधु प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त नहीं कर ले तब तक उसे आहार करना, विहार करना और यहाँ तक कि शास्त्र स्वाध्याय करना भी उचित नहीं है। यदि वर्ष के अंत में संवत्सरी-प्रतिक्रमण भी हमने शुद्ध भावों से नहीं किया, दोष शुद्धि नहीं की तो हमारी कषाय अनंतानुबंधी-श्रेणी की हो जायेगी, जिससे हम सम्यक्त्व रूपी दुर्लभ रत्न को सुरक्षित नहीं रख पायेंगे। प्रतिक्रमण सबके लिए- जिन्होंने किसी प्रकार के व्रत-नियम ग्रहण नहीं किये हैं, क्या ऐसे लोगों को भी प्रतिक्रमण से लाभ होता है? क्या उनके लिए भी यह आवश्यक है? इन प्रश्नों के उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि निम्न कारणों से प्रतिक्रमण करना प्रत्येक आत्मार्थी साधक के लिये आवश्यक है, चाहे उसने व्रत-नियम ग्रहण कर रखे हैं अथवा नहीं१. प्रतिक्रमण करने से व्रतों के स्वरूप की जानकारी एवं अव्रती की व्रत-ग्रहण करने की भावना बलवती बनती 2. प्रतिक्रमण करने से व्रतों में स्थिरता एवं दृढता आती है। 3. प्रतिक्रमण के पाठों में समकित व ज्ञान के अतिचारों का भी वर्णन है, अठारह पापों की आलोचना भी है जो ___ करना सभी के लिये आवश्यक है। 4. अकरणीय कार्यों-कर्मादान आदि की जानकारी एवं उनसे बचते रहने की भावना दृढ़ बनती है। 5. वीतराग के वचनों पर श्रद्धा न रखी हो, सिद्धान्त विपरीत प्ररूपणा की हो, अथवा करने योग्य कार्य स्वाध्याय-ध्यान आदि न किया हो तो उसकी आलोचना करना भी सभी के लिये आवश्यक है। 6. आवश्यक सूत्र के छह आवश्यकों में से चौथे आवश्यक 'प्रतिक्रमण' में ही व्रतों की प्रमुखता है, शेष अन्य ___आवश्यक अव्रती के लिये भी लागू होते हैं। 7. जितना समय प्रतिक्रमण करने में व्यतीत होगा, उतने समय हमारे योगों की प्रवृत्ति शुभ रहेगी। अशुभ पापों व कर्मो के बंधन से उतने समय के लिये तो हमारा बचाव हो सकेगा। 8. स्वाध्याय होगा। 9. चारित्र की विशेष अभिवृद्धि होगी। १०.कालेकाल शुद्ध प्रतिक्रमण करने से तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन हो सकता है। -467 ए, सातवीं ए रोड़, सरदारपुरा, जोधपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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