Book Title: Pratikraman Jivan Shuddhi ka Upay
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी संशोधन करके उसको उज्ज्वल करें। -नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं, पृष्ठ ४१९ जो लोग कहते हैं कि सूत्रों का और प्रतिक्रमण का हिन्दी अनुवाद कर देना चाहिए, उनको समझना चाहिए कि हिन्दी का अनुवाद करके मूल को हटा देंगे तो आपको उन सूत्रों की मूल प्राकृत भाषा का ज्ञान नहीं रहेगा, मूल सूत्र का वाचन बन्द हो जाएगा। इसके अतिरिक्त भाषा में अनुवाद करते समय यह समस्या भी आयेगी कि किस भाषा में अनुवाद किया जाए ? भारत में तो राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी, बंगला, मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलगु, पंजाबी, सिन्धी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाएँ हैं। यदि कोई कहे कि सभी भाषाओं में अनुवाद कर दिया जाय तो भी दिक्कत आयेगी। कल्पना करिए एक ही स्थानक में बैठे विभिन्न भाषा-भाषी लोग अपनी-अपनी भाषा में सामायिक के पाठ बोलेंगे तो कैसी हास्यास्पद स्थिति हो जाएगी। एकरसता भी नहीं रहेगी और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मूल पाठों में जो उदात्त और गुरु गंभीर भाव भरे हैं वे अनुवाद में कभी नहीं आ सकते । इसलिए पाठों का मूल भाषा में रहना सर्वथा उचित और लाभकारी है। इसी से हमारी प्राचीन धार्मिक परम्परा और धर्मशास्त्रों की भाषा अविच्छिन्न रह सकती है। साथ ही आज जो सामायिक करते समय या शास्त्र पढ़ते समय हम इस गौरव का अनुभव करते हैं कि वीतराग प्रभु के मुख से निसृत वाणी का पाठ कर रहे हैं, वह भी अक्षुण्ण रह सकता है। -नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं, पृष्ठ ४१९ से श्रावक ऐसा कोई कर्म नहीं करेगा, जिससे उसके व्रतों में मलिनता उत्पन्न हो । वह व्रतबाधक व्यवसाय दूर ही रहेगा और अपने कार्य से दूसरों के सामने सुन्दर आदर्श उपस्थित करेगा । व्रत ग्रहण करने वाले को अड़ोसी पड़ौसी चारचक्षु से देखने लगते हैं, अतएव श्रावक ऐसा धंधा न करे जिससे लोकनिन्दा होती हो, शासन का अपवाद या अपयश होता हो और उसके व्रतों में बाधा उपस्थित होती हो। -आध्यात्मिक आलोक, पृष्ठ ४०२ 25 साधु-सन्त कितना ही सुन्दर उपदेश दें, धर्म की महिमा का बखान करें और वीतराग प्रणीत धर्म की उत्कृष्टता का प्रतिपादन करें, मगर जब तक गृहस्थों का एवं उसके अनुयायियों का व्यवहार अच्छा न होगा तब तक सर्वसाधारण को वीतराग धर्म की उत्कृष्टता का खयाल नहीं आ सकता । अतएव अपने आचरण को श्रेष्ठ बनाना भी धर्म प्रभावना का एक अंग है ! आध्यात्मिक आलोक, पृष्ठ ४०३ प्रत्येक गृहस्थ को यह अनुभव करना चाहिए कि वह जिनधर्म का प्रतिनिधि है और उसके व्यवहार से धर्म को मापा जाता है, अतएव ऐसा कोई कार्य उसके द्वारा न हो, जिससे लोगों को उसकी और उसके द्वारा धर्म की आलोचना करने का अवसर प्राप्त हो। -आध्यात्मिक आलोक, पृष्ठ ४०३ चिकित्सक के पास जाकर कोई रोगी यदि उससे बात छिपाता है, अपने रोग को साफ-साफ प्रकट नहीं करता तो वह अपना ही अनिष्ट करता है। इसी प्रकार जो साधक गुरु के निकट अपने दोष को ज्यों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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