Book Title: Pratibhamurti Pt Todarmal Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf View full book textPage 1
________________ प्रतिभामूर्ति पण्डित टोडरमलजी महामना आचार्य भूतबलि तथा पुष्पदन्तने अट्खण्डागम सिद्धान्त और आचार्य गुणधर ने कसाय - पाहुड सिद्धान्त-ग्रन्थोंका प्रणयन करके भगवान् महावीरके अवशिष्ट तत्त्वज्ञान सौर सद्धर्मका विस्तार किया था । यह समय लगभग विक्रमकी पहली शताब्दीका है । कुछ शताब्दियों तक इन सिद्धान्त-ग्रन्थोंका पर्याप्त पठनपाठन बना रहा - इनपर कई टीकाएँ, निबन्ध और रचनाएँ लिखी गईं । परन्तु कुछ काल बाद इनका पठनपाठन विरल 'गया और टीकादि ग्रन्थ लुप्त अथवा अनुपलब्ध हो गये । विक्रमको नवमी शतीमें जैन वाङ् नभ में एक दीप्तिमान् प्रतिभा प्रकाशपुञ्ज विद्वन्नक्षत्रका आविर्भाव हुआ, जिसका नाम आचार्य वीरसेन स्वामी है । वीरसेन स्वामीने उक्त सिद्धान्त-ग्रन्थोंपर विद्वत्ता एवं पाण्डित्यपूर्ण विशाल और महान् धवला तथा जयrवला टीकाएँ लिखीं, जो लगभग नब्बे हजार श्लोक प्रमाण है । जयधवलाके दो तिहाई भागको जिनसेन स्वामी ने लिखा, जो वीरसेन स्वामीके बुद्धिमान प्रधान शिष्य थे । इन टीकाओंके आधारसे विक्रम सं० की ग्यारहवीं शताब्दी में नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसार सिद्धान्तग्रन्थको रचना की । गोम्मटसार जैन समाजको इतना प्रिय हुआ कि इसके बननेके बाद विद्वानोंमें प्रायः उसीका पठन-पाठन रहा और केशववर्णी, द्वितीय नेमिचन्द्र, अभयचन्द्र आदि विद्वानाचार्यो द्वारा विस्तृत एवं सरल कनड़ी तथा संस्कृत टीकाएँ इसपर लिखी गईं। इस तरह वीरसेन स्वामी द्वारा पुनः प्रवर्तित सिद्धान्तज्ञान- परम्परा तेरहवीं शताब्दी तक अनच्छन्न रूपसे चली आई | परन्तु तेरहवीं शताब्दीके बाद अठारहवीं शताब्दी पर्यन्त उसका पठन-पाठन, लिखना-लिखाना प्रायः बन्द हो गया और उनके ज्ञाताओंका अभाव हो गया । विक्रमकी अठारहवीं शताब्दी के अन्त में जयपुरकी पवित्र उर्वरा भूमिपर एक दूसरे बहु प्रकाशमान तेजस्वी नक्षत्रका उदय हुआ, जिसका प्रकाश चारों तरफ फैला और जो 'पंडित टोडरमल' इस नाम से विख्यात एवं विश्रुत हुआ । हम इन्हें इनकी असाधारण विद्वत्ता और असाधारण कार्य से दूसरे वीरसेन स्वामी कह हैं । वीरसेनस्वामीने जैसा धवलादि टीकाओंके निर्माणका कार्य किया, प्रायः वैसा ही इन महाविद्वान् पंडित टोडरमलजीने किया । जब गोम्मटसार, त्रिलोकसार आदि गहन सिद्धान्तग्रन्थोंके जानकार दुर्लभ थे- उनका प्रायः अभाव था और तत्त्वज्ञानपरम्परा विच्छिन्न हो गयी थी, उस समय इन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा और अद्भुत क्षयोपशमसे गोम्मटसारादि सिद्धान्तग्रन्थोंके गहन एवं सूक्ष्म तत्त्वों व रहस्योंको ज्ञातकर उनपर पैंसठ हजार श्लोक प्रमाण 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' नामकी विशाल भाषा-टीका रची और अनेकों तत्त्वजिज्ञासुओं को उसके से परिचित कराया । गुरुमुखसे पढ़कर पढ़े विषयको दूसरोंके लिये समझाना अथवा उसपर कुछ लेखादि लिखना सर्वथा सरल हैं । परन्तु जिस गहन तथा सूक्ष्म विषयका उस पर्याय में किसी से परिचय अथवा ज्ञान नहीं हुआ उस विषयको दूसरोंके लिये बड़ी सरलता से समझाना अथवा उसपर विस्तृत टीकादि लिखना बिना असाधारण प्रतिभा और पूर्वजन्मीय विलक्षण क्षयोपशमके असम्भव है । उनका बनाया मोक्षमार्गप्रकाशक हिन्दी भाषाका बेजोड़ गद्यग्रन्थ है । भारतीय समग्र हिन्दी गद्य साहित्य में इसकी तुलनाका एक भी ग्रन्थ दृष्टिगाचर नहीं होता। क्या भाषा, क्या भाव, क्या पदलालित्य और क्या सरलता सबसे भरपूर है | इस ग्रन्यने जैन परम्परा में थोड़ेसे ही समय में वह महत्त्व प्राप्त कर लिया है जो हिन्दुओंके यहाँ गीताने, मुमलमानोंके यहाँ कुरानने और ईसाइयोंके यहाँ वाईविलने प्राप्त किया है। काश ! यदि यह ग्रन्थ अधूरा न - ४६० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2