Book Title: Prarthana Parda Dur Karo
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 6
________________ * 320 * व्यक्तित्व एवं कृतित्व इसी प्रकार आप भी अपने अन्तःकरण को वीतराग-स्वरूप के साथ संजो कर और बीच के समस्त पर्दो को हटा कर चलोमे तो वीतराम बन आओगे प्राचीन सन्त ने कहा है मैं जानूं हरि दूर है, हरि हिरदे के मांहि / आड़ी टाटी कपट की, तासें सूझत नाहिं / / भगवान् बहुत दूर नहीं हैं, बल्कि अत्यन्त निकट हैं। प्रश्न होता है कि निकट हैं, तो दिखाई क्यों नहीं देते? इस प्रश्न के उत्तर में सन्त कहता हैदोनों के बीच एक टाटी खड़ी है-परदा पड़ा हुआ है, इसी कारण वह दिखाई नहीं देता / अगर परदा हट जाय तो वह दिखाई देने लगेगा / यही नहीं, अपने ही भीतर प्रतिभासित होने लगेगा। जीव शिव से मिलने गया-परमात्मा से मिलने चला परन्तु परदा रख कर चला तो ? उसने समझा-मैं बड़ा साधक हूँ, बड़ा ज्ञानी हूँ, धनी हूँ, ओहदेदार हूँ। इस प्रकार माया का परदा रख कर गया और इस रूप में भले ही वीतराग के साथ प्रार्थना की, रगड़ की, तब भी क्या वीतरामता प्राप्त की जा सकेगी? नहीं, क्योंकि बीच में परदा जो रह गया है / परदे की विद्यमानता में रगड़ से आप जो ज्योति जगाना चाहते हैं, वह नहीं जाग सकती। अतएव परदे को हटाना आवश्यक है / आप ऐसा करेंगे तो परम झान्ति पा सकेंगे, परम ज्योति जगा सकेंगे, परमानन्द प्राप्त कर सकेंगे। अमृत-करण 0 प्रभु की प्रार्थना साधना का ऐसा अंग है, जो किसी भी साधक के लिए कष्टसाध्य नहीं है / प्रत्येक साधक, जिसके हृदय में परमात्मा के प्रति गहरा अनुराग है, प्रार्थना कर सकता है। 0 जो मानव आत्मदेव की प्रार्थना करता है, वह शिव-शक्ति का अधिकारी बन जाता है / एक बार शिव-शक्ति की उपलब्धि हो जाने पर प्रार्थी कृतार्थ हो जाता है और उसे प्रार्थना की भी आवश्यकता नहीं रह जाती। . प्राचार्य श्री हस्ती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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