Book Title: Pramanmimansa Ek Adhyayan
Author(s): Shrichand Choradiya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ सारूप्य प्रमाण है और विषयाधिगति फल ।' विज्ञानवाद (योगाचार) बौद्धों का कहना है कि ज्ञानगत स्वसंवेदन फल है और ज्ञानगत तथाविध योग्यता ही प्रमाण है।' प्रमाण और फल को ज्ञानगत धर्म माना है और उनमें भेद न माने जाने के कारण वे अभिन्न कहे गये हैं, क्योंकि ज्ञान से भिन्न हेय और उपादेय रूप ज्ञान का फल वास्तव में प्रमाता का फल है, ज्ञान का नहीं। परन्तु उनका यह कहना सम्यक् नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ जिस पदार्थ से सर्वथा अभिन्न होता है, वह उसी पदार्थ के साथ उत्पन्न होता है । बौद्ध लोग प्रमाण और प्रमाण के फल में कार्य-कारण संबंध मानकर प्रमाण को कारण और प्रमाण के फल को कार्य कहते हैं। यह कार्य-कारण-भाव प्रमाण और उसके फल को सर्वथा अभिन्न मानने में नहीं बनता। दर्शनशास्त्र का यह नियम है कि कारण कार्य के पहले, कार्य कारण के बाद होता है। तत्त्वतः बौद्ध लोगों द्वारा मानित क्षणिकवाद में कार्य-कारण-भाव बन ही नहीं सकता है। किसी भी दृष्टि से प्रमाण और प्रमाण का फल सर्वथा अभिन्न नहीं हो सकते । न्याय, वैशेषिक, मीमांसक आदि फल को प्रमाण से भिन्न ही मानते हैं। फल के स्वरूप से विषय में वैशेषिक, नैयायिक और मीमांसक सभी का मंतव्य प्रायः एक समान है। सर्वथा एकांत भेद का पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रमाण और उसका फल अलग-अलग नहीं हैं, कारण कि एक ही प्रमाता प्रमाण और उसका फल रूप होकर पदार्थों को जानता है। अतः प्रमाण और प्रमाण के फल से कथंचित् अभिन्न है, क्योंकि प्रमाण रूप परिणत आत्मा ही फल रूप कही जाती है। आत्मा को छोड़कर दूसरी जगह फल का ज्ञान नहीं होता। यदि प्रमाण और उसके फल में कथंचित् अभेद न माना जाय तो एक मनुष्य के प्रमाण का फल दूसरे मनुष्य को मिलना चाहिए और इस तरह प्रमाण और उसके फल की कोई भी व्यवस्था नहीं हो सकती। जैन दर्शन में चूंकि एक ही आत्मा प्रमाण और फल दोनों रूप से परिणति करता है, अतः प्रमाण और फल अभिन्न माने गये हैं तथा कार्य और कारण रूप से क्षण भेद और पर्याय भेद होने के कारण ये भिन्न हैं।'' भेदाभेदविषयक चर्चा में जैन दर्शन अनेकांत दृष्टि का ही उपयोग करता है। सर्वथा अभेद में - उनमें एक व्यवस्थाप्य, दूसरा व्यवस्थापक, एक प्रमाण और दूसरा फल---यह भेद व्यवहार हो नहीं सकता। जिसे प्रमाण उत्पन्न होता है, उसीका अज्ञान हटता है, वही हित को छोड़ता है, हित का उपादान करता है और उपेक्षा करता है। इस तरह एक प्रमाता (आत्मा) की दृष्टि से प्रमाण और फल में कथंचित् अभेद हो सकता है। प्रमा के साधकतम ज्ञान को प्रमाण कहते हैं तथा व्यापार प्रमिति है। इस प्रकार पर्याय की दृष्टि से उनमें भेद है। इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रमाण और फल में कथंचित् अभेद, कथंचित् भेद है।" नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, सांख्य आदि इन्द्रियव्यापार के बाद होने वाले सन्निकर्ष से लेकर हानोपादानोपेक्षाबुद्धि तक के क्रमिक फलों की परंपरा को फल कहते हुए भी उस परंपरा से पूर्व-पूर्व फल को उत्तर-उत्तर फल की अपेक्षा से प्रमाण भी कहते हैं। इन्द्रिय को तो वे प्रमाण ही मानते हैं, फल नहीं। जब प्रमाण का कार्य अज्ञान की निवृत्ति करना है तब उस कार्य के लिए इन्द्रिय, इन्द्रियव्यापार और सन्निकर्ष, जो कि अचेतन हैं, कैसे उपयुक्त हो सकते हैं । ५ १. 'उभयवेति प्रत्यक्षेऽनुमानं च तदेव ज्ञानं प्रत्यक्षानुमानलक्षणं फलं कार्यम्', न्यायप्रवेशवृत्ति, पृ०३६ २. 'विषयाधिगतश्च प्रमाणफलमिष्यते। स्वबित्ति वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ।।', तत्वसं० १३४४ ३. प्रमाणसमुच्चय, १/8; न्यायबिदु टीका, १/२१ ४. 'प्रमाणं कारणं फलं कार्यमिति', स्याद्वादमंजरी ५. 'द्विष्ठसंबंधसंवित्तिकरूपप्रवेदनात् । द्वयोः स्वरूपग्रहणे सति संबंधवेदनम् ॥', स्यादवादमंजरी ६. श्लोकवा०, प्रत्यक्ष, श्लो० ७४-७५ ७. न्यायभा०, १/१/३; प्रश० कन्दली, पृ० १६८-86 ८. अष्टसहस्री, पृ० २८३-८४ ६. 'फलमर्थप्रकाशः', प्रमाणमीमांसा, १/३४ १०. 'कर्मोन्मुखो ज्ञानव्यापारः फलम् । कर्तृ व्यापारमुल्लिखन बोधः प्रमाणम्', प्रमाणमीमांसा, १/३५-३६ ११. जैन सिद्धांतदीपिका, पृ०६ १२. 'एकज्ञानगतत्वेन प्रमाणफलयोरभेदो व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभाबात्तु भेद इति भेदाभेदरूपः स्याद्वादमबाधितमनुपतति', प्रमाणमीमांसा, १/३७ १३. 'यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षेते चेति प्रतीतेः', परीक्षामुख, ५/३ १४. 'करणरूपत्वात् क्रियारूपत्वाच्च प्रमाणफलयोर्भेद: । अभेदे प्रमाणफलभेदव्यवहारानुपपत्तेः प्रमाणमेव वा फलमेव वा भवेत्', प्रमाणमीमांसा, १/४१ १५. अष्टसहस्री, अष्टशती 'जैन दर्शन मीमांसा १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8