Book Title: Prakrit Vangamay me Shabdalankar Author(s): Rudradev Tripathi Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 4
________________ श्री आनन्दन ग्रन्थ 99 श्री आनन्दका अन्थ प्राकृत भाषा और साहित्य (३) उभयगत' किये गये हैं । इनमें भी शब्द के सौष्ठव को सर्वसाधारण के समक्ष सरलता से उपस्थित कर अर्थज्ञान के लिए प्रेरित करना तथा वर्ण कौतुक के आधार पर श्रुतिमाधुर्य से आकृष्ट करने का कार्य शब्दालङ्कार पर ही निर्भर रहा है। 'काव्य यदि एक कला है तो उस कला का रूप शब्दालङ्कार ही है' इस दृष्टि से शब्दालङ्कार के विभिन्न रूप प्रस्तुत हुए और उनकी इतनी व्यापकता हुई कि कोई भी शब्दशिल्पी इससे बच नहीं पाया । इसकी परिधि में प्रमुखतः चार बातें, जो कि भाषा के सौन्दर्य को बढ़ाने में अत्यधिक अपेक्षित होती हैं, उन - (१) स्वर और व्यंजनों की योजना, (२) शब्द-संघटना, (३) पद अथवा वाक्य व्यवस्था एवं सुसज्जित विन्यास तथा (४) अर्थ सौन्दर्य अथवा चमत्कार का सन्निवेश - का समावेश आवश्यक माना गया है और यही कारण है कि शब्दालङ्कार काव्य का एक अविभाज्य अङ्ग बन गया । शब्दालङ्कारों की संख्या पूर्वाचार्यों ने अलङ्कार मात्र के लिए कहा है कि- 'वाणी की अलङ्कार - विधि विस्तृत है १०, अलङ्कारों की सृष्टि तो आज भी हो रही है, अतः समस्त अलङ्कारों की गणना कौन कर सकता है ? 19 इसके अनुसार शब्दालङ्कार भी मूलतः (१) अनुप्रास, (२) यमक, (३) पुनरुक्तवदाभास, (४) वक्रोक्ति, ( ५ ) श्लेष तथा ( ६ ) चित्र - इन छह प्रकारों में विभक्त होकर भी प्रत्येक के अनेकानेक भेदोपभेदों के कारण अनन्तता को प्राप्त करता है । आज भी इसके भेद – प्रकारों में नये-नये स्वरूपों का समावेश हो रहा है । 10 ५८ 卐漫 यह अलङ्कार वस्तुत: अपनी मनौवैज्ञानिक प्रक्रिया के कारण अनचाहे मन पर भी प्रभाव जमाता रहता है । तभी तो महाकवि जगद्धर ने 'स्तुतिकुसुमाञ्जलि' में कहा है कि शब्दार्थ मात्रमपि ये न विदन्ति तेऽपि, संरुद्ध सर्वकरण प्रसरा यां मूर्च्छनामिव मृगाः श्रवणैः पिबन्तः । भवन्ति, चित्रस्थिता एव कवीन्द्रगिरं नमस्ताम् ।। ५ / १७ ॥ ऐसी कवीन्द्रों की वाणी में जो नाद-सौन्दर्य अन्त्यानुप्रासनिबद्ध मधुराक्षर-संनिवेश, संगीतलयलहरी और वर्ण- मैत्रीरूप झंकृति का ही नाम शब्दालङ्कार है । प्राकृत भाषा का साहित्य वैसे तो प्राकृत भाषा में निबद्ध साहित्य की परम्परा अति प्राचीन है, किन्तु महाकाव्य के रूप में 隱 उपलब्ध प्रथम कृति 'सेतुबन्ध" महाकवि प्रवरसेन की मानी जाती है; पाँचवीं शती में निर्मित यह काव्य ६. शब्दार्थोभय भूयिष्ठ भेदात् त्रेधा तदुच्यते । ४/२५ सरस्वती कण्ठाभरण । १०. गिरामलङ्कारविधिः सविस्तरः । - काव्यालङ्कार - भामह, ३-५८ । ११. ते चाद्यापि विकल्प्यन्ते कस्तात् कात्र्त्स्न्येन वक्ष्यति । काव्यादर्श - दण्डी, २ / १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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