Book Title: Prakrit Bhasha ke Dhwani Parivartano ki Bhasha Viagyanik Vyakhya Author(s): Devendra Kumar Jain Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 3
________________ ३५० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ जैसे-श्लाघा-सलाह । स्वभाव-सहाव । नाथनाह। साधुसाहु । स्पर्श महाप्राण का नाद महाप्राण रह जाता है । पुच्छ =पिछं । कभी-कभी महाप्राण ही रहता है-पिहं । स्पर्श का नाद होता हैजटिलझडिल । नटनड । घट-घड । प्रतिपडि । 'उ' के स्थान पर 'ल' (उलयोरभेदः) गुल=गुड । वाडिस=वलिस । फाडफाल । 'ट' के स्थान पर महाप्राण नाद ढ का होना-कैटभ =के ढव । सहा-सडा । पिठर= पिट्ठर । सकटसअढ । कुठार-कुठार । र और ल में विनिमय की आम प्रवत्ति थी। कातर=काइल | गरुड=गरुल । हरिद्र-हलिद्ध । द का मूर्धन्य भाव 'ड' जैसे-- दर-डर । दंश =डंस । दइद्रह । दम्भ-द्रम्भ । दर्भ-डम्भ (डाभ) पृथ्वीपुढवी। निशीथ - निसीढ । प्रथम पढम । ढोला=डोला। दंड-डंड । य और व के अतिरिक्त महाप्राण ध्वनि भी है। भरत =भरअ=भरहि । वसती=वसई-वसही। 'थ' और 'ष' का महाप्राण होता है। कभी-कभी महाप्राण 'ह' से भी विनिमय संभव है पाषाण =पाहान । प्रत्यूष-पच्चूह । पथ-पइ । शब्द के आदि का 'ष' के 'छ' बनने के उदाहरण हैं षट्पद छप्पअ । षष्ठी-छठी। विशेष ध्वनि परिवर्तन प्राकृत वैयाकरण, गृह और दुहिता के स्थान पर 'घर' और 'धुअ' आदेश करते हैं । परन्तु इन्हें ध्वनि परिवर्तन की प्रक्रिया से सिद्ध किया जा सकता है। जैसे-गृह-गरह (ऋ-अर= ग=गह) वर्ण्य प्रत्यय से 'ग' में 'र' मिलकर महाप्राण घर । दुहिता से मध्यम 'त' का लोप और 'द' का महाप्राण और दीर्घ होने से धुआ बनता है। एक ही शब्द के पूर्व सावर्ण्य और पर सावर्ण्य भाव दोनों प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं, जैसे-रक्त रक्क=रग्ग=रत्त । शक्त=सत्त=सक्क । पर्यस्त पर्याण और पर्यक से बनने वाले पल्लस्त-पल्लाण और पल्लंक में (रलयोरमेद.) का प्रभाव है। सूक्ष्म से सुण्ह बनने में यह ध्यान रखना उचित होगा कि सूक्ष्म के क्ष में क+ष पड़ा हुआ है, उससे-सुमहसूणह=सुण्ह बना। मध्यस्वरागम के उदाहरण निम्नलिखित हैं हर्ष हरिस । अमर्ष =अमरिस । श्री=सिरी, ह्री=हिरी । क्रिया=किरिआ। महाराष्ट्र से मरहठ्ठ बनने में वर्ण प्रत्यय की प्रवृत्ति सक्रिय है। निष्कर्ष इस प्रकार प्राकृत वैयाकरणों का सबसे बड़ा प्रदेय यह है कि उन्होंने प्राकृतों के साहित्य को सुरक्षित रखा, जिससे प्राचीन और आधुनिक भाषाओं का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन हो सका। इन उदाहरणों से भारतीय आर्य भाषाओं में होने वाली ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी रिक्तता को भरा जा सकता है और उन प्रवृत्तियों का वर्गीकरण किया जा सकता है कि जो उसके परिवर्तन में हीनाधिक मात्रा में होती रहती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7