Book Title: Prakrit Bhasha Ek Avichinna Dhara Author(s): Kamlesh Jain Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 2
________________ २५८ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन प्राकृत भाषा का अर्थ है-जन साधारण के बोलचाल की भाषा । अतः इस बोलचाल की प्राकृत को देशभाषा कहना अधिक उपयुक्त होगा। सामान्य रूप से विचार करने पर ज्ञात होता है कि प्राकृत भाषा का बोलचाल के रूप में प्रयुक्त प्रथम रूप शुद्ध बोली का रूप था, जिसे हम चाहें तो सुविधा की दृष्टि से प्राकृत बोली भी कह सकते हैं। इसी का विकसित रूप आगे चलकर दो धाराओं में विभक्त दिखाई देता है-प्रथम वह रूप जो प्राकृत बोली से व्याकरण विहीन काव्य रचना में प्रयुक्त हुआ है, और दूसरा रूप वह जो प्राकृत भाषा के तत्कालीन विकसित रूप को दृष्टिगत रखकर प्राकृत-वैयाकरणों द्वारा व्याकरण के कठोर नियमों से जकड़ दिया गया है । यही उत्तरकालीन व्याकरण सम्मत रूप साहित्यिक प्राकृत के रूप में सामने आया । इस उत्तरकाल में जिन प्राकृत-ग्रन्थों की रचना हुई उनका आधार प्राकृत व्याकरण सम्मत था। इस प्रकार की रचनाओं के उदाहरण के रूप में उद्योतनसूरि की प्राकृत रचना कुवलयमालाकहा ( ७७९ ई० ) को प्रस्तुत किया जा सकता है। यह साहित्यिक भाषा, व्याकरण के नियमों में बद्ध होने के कारण क्रमशः क्लिष्ट होती गई और उसका वह रूप न रहा जो प्रारम्भ में जन साधारण की बोली के रूप में विकसित हुआ था। अतः इसे एक नवीन नाम साहित्यिक प्राकृत दिया गया। इसे संस्कृत प्राकत, परिमार्जित प्राकत अथवा परिष्कृत प्राकृत भी कहा जा सकता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि इस परिष्कृत प्राकृत का प्रयोग काव्य रचना में तो होने लगा, किन्तु जो बोलचाल की भाषा थी, वह व्याकरण के नियमों में बद्ध न हो सकी और वह अपने नित्य नवीन रूप में सतत विकसित होती रही, प्रवहमान होती रही। प्राकृत भाषा का यह रूप ऋग्वेद काल से भी पूर्व प्रचलित जनबोली का विकसित रूप है, जो अनेक थपेड़ों से गुजरकर अपने इस विकसित रूप को प्राप्त हो सका है। अतः यह सहज ही कहा जा सकता है कि वैदिक संस्कृत और प्राकृत की जननी, वैदिक काल से पूर्व प्रचलित एक जनबोली थी। इसलिये डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने संस्कृत और प्राकृत के मध्य कार्य-कारण अथवा जन्य-जनकभाव को अस्वीकार करते हुये जो दोनों भाषाओं को सहोदरा कहा है वह यथार्थ है। परवर्ती काल में कुछ विशिष्ट लोगों ने वैदिक संस्कृत को देवभाषा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की और उसे अपने मूल रूप में सुरक्षित रखने के लिये अनेक ठोस ४. देखिए -प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, तारा पब्लिकेशन्स, कमच्छा, वाराणसी, १९६६, पृष्ठ १३ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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