Book Title: Prak Madhyakalin Jain Parikar ke Khand Author(s): Sumantbhai Shah Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 4
________________ Vol. III - 1997-2002 प्राक्मध्यकालीन जैन परिकर के खण्ड 343 किया गया है। यह निर्माण को आकर्षक बनाता है। व्याल पीछे के एक या दो पैरों पर खडा बनाया जाता है / इस परिकर में व्याल को इतने महत्त्वपूर्ण रूप में बताना एक आश्चर्य है / साधारणतया परिकरों में चामरधारी इन्द्र, देवी-देवता, यक्ष-यक्षिणियों, काउस्सग एवं ध्यानमुद्रा में तीर्थकर आदि बनाये जाते हैं लेकिन व्याल को परिकर में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना इस परिकर को अति प्राचीन होने की गवाही देता है / इस परिकर में व्याल एक पैर पर खड़ा है एवम् दूसरा पैर हवा में उठाया है। शिल्प को गुच्छेदार पूँछ के सहारे हाथी के कंधों पर खड़ा किया है। व्याल को त्रिभंगी रूप में बनाया है। पैरों को बाजू में बनाया है। कमर को मरोड़ देकर छाती को एवं चेहरों को सामने से बनाया है / ऊपर के दोनों पैर, दोनों बाजुओं में फैलाये हैं। लगता है व्याल प्रभु की सेवा में उपस्थित होकर हर्ष मना रहा है। मुख पूरी तरह खुला है। इससे भी हास्य का आभास होता है ! आँखों के भवों के साथ जुड़े हुए हिरण के सींग बने हैं। इसके बीच में एक कलगी बनी हैं / बाजू में सप्रमाण कान भी बनाये हैं / यह सब खुशी के प्रतीक लगते हैं / हाथी एवं मानवाकृतियाँ - व्याल ने दोनों बाजुओं में फैलाये हुये पैरों के पीछे दबी हुई करबद्ध मानवाकृतियाँ भक्तिभाव में लीन मालूम होती हैं / व्याल के पैर के नीचे सप्रमाण एवं सुंदर हाथी संपूर्ण तथा समर्पण की सौम्य भावना में हैं। यह अहिंसा एवं धैर्य का भी प्रतीक है। उसके ऊपर के हिस्से में दो हँसते हुये मकर बने हैं / मकर मगरमच्छनुमा कल्पित जीव है। भारतीय स्थापत्य एवं शिल्पकला में मकर तोरणों के साथ विशेष रूप में दिखाये जाते हैं / हँसते हुए यह मकर विरुद्ध दिशा में मुख किये हुये हैं / इसके पीछे बनी हुई आकृतियाँ, समुद्र में उठती हुई तरंगों जैसी दिखती हैं। ऐसा आभास होता है कि जैसे प्राणी समुद्र की लहरों में से बाहर आ रहा हो / आभामण्डल - ब्राह्मणीय बौद्ध एवं जैन शिल्प एवं स्थापत्य में आभामण्डल का सभी स्थानों में उपयोग हुआ है। वैसे भी विश्व की कोई भी दिव्य विभूति के मुखारविंद के पीछे आभामण्डल होता ही है / जैन शिल्प कला में तीर्थंकरों एवं देव-देवियों के मुखारविंद के पीछे अनेक प्रकार के आभामण्डल दिखाये गये हैं। वैसे ही इस परिकर में भी दोनों मकरों के बीच में अति विशेष एवं सुंदर आभामण्डल बना है। यह भी समुद्र में से उठी तरंगों से रूप में लड़ीबद्ध आकृतियाँ बनी हैं जो आभामण्डल के नीचे के हिस्से से उभरकर ऊपर की ओर उठती हुई संतुलित एवं सप्रमाण तरीके से ऊपर के हिस्से के बीच में मध्य बिंदु से मिल जाती है / ये विशेष आकृतियाँ दूसरे आभामण्डल में देखने में नहीं आती हैं / आभामण्डल के मध्य में वर्तुल है उसके मध्य में खुली पंखुड़ियों वाला कमल बना है। कमल के मध्य में एक और वर्तुल बना है एवं उसके मध्य में भी छोटा वर्तुल बना है। उसके बाहर रेखायें बनी हैं जैसे सूर्य से निकली शत-शत किरणें हों / यह सूर्य जैसा भी लगता है ! आभामण्डल की विशेषतायें भी परिकर को अति प्राचीन बता रही हैं। यह परिकर सीमित एवं सादे तत्त्वों से बना हुआ है लेकिन इसका शिल्पांकन सशक्त एवं सिद्धहस्त शिल्पकारों के हाथों बना हुआ है / परिकर शिल्पकला के रूप में भी उल्लेखनीय है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4