Book Title: Prachin Vajramandal me Jain Dharm ka Vikas
Author(s): Prabhudayal Bhital
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 4
________________ द्वारा कथित अर्धमागधी प्राकृत भाषामें है, जिन्हें 'जिन-वाणी' अथवा 'आगम' कहा जाता है। वैदिक संहिताओंकी भांति जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में थे। सम्राट अशोकने बौद्धधर्मके प्रचारार्थ अपने साम्राज्य के विविध स्थानोंमें जो धर्म-लेख लिखवाये थे, उनसे जैनधर्मके विद्वानोंको भी आगमोंको लिखित रूपमें सुरक्षित करनेको आवश्यकता प्रतीत होने लगी; किंतु जैनाचार्योंके प्रबल विरोधके कारण उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया जा सका था। जब कई शताब्दियों तक अन्य स्थानोंके जैनाचार्य आगमोंको लिपिबद्ध नहीं कर सके, तब मथुरामंडलके जैन विद्वानोंने उक्त प्रश्नको उठाया, और 'सरस्वती आंदोलन' द्वारा इस विषयका नेतृत्व किया था। विद्या बद्धि और ज्ञान-विज्ञानकी अधिष्ठात्री देवीका नाम सरस्वती है। इसे ब्राह्मी, भारती, भाषा और गीर्वाणवाणी भी कहते हैं। यद्यपि सरस्वतीकी मूल कल्पना प्राचीन है, तथापि इसके स्वरूपका विकास और पूजनका प्रचार जैनधर्मकी देन है। मथुराके जैन विद्वानोंको यह श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने परंपरागत श्रुत एवं कंठस्थ 'जिन बाणी' को लिखित रूप प्रदान करने के लिये 'सरस्वती आंदोलन' चलाया था, और मथुराके मूर्ति-कलाकारोंने सर्वप्रथम पुस्तकधारिणी सरस्वती देवीकी प्रतिमाएँ निर्मितकर उस आंदोलनको मूत्त रूप प्रदान किया था। उक्त आंदोलन का यह परिणाम हआ कि जिन-वाणीको लिपिबद्ध करने का विरोध क्रमश: कम होता गया। पहिले दिगंबर विद्वानोंने आगम ज्ञानको संकलित कर लिपिबद्ध किया, बादमें श्वेतांबर विद्वान भी उसके लिये सहमत हो गये । यद्यपि इस कार्यमें कई शताब्दियों तक ऊहापोह होता रहा था। __ 'माथरी-वाचना'-दिगंबर विद्वानों द्वारा आगमोंके संकलन और लेखनसे उत्पन्न स्थितिपर विचार करनेके लिये सं 370 वि० के लगभग मथुरामें श्वेतांबर यतियोंका एक सम्मेलन हुआ, जिसकी अध्यक्षता आर्य स्कंदिलने की थी। उस सम्मेलनमें आगमोंका पाठ निश्चित कर उनकी व्याख्या की गई, जिसे 'माथुरी वाचना' कहा जाता है। उसी समय आगमोंको लिपिबद्ध करनेपर भी विचार किया गया, कितु भारी मतभेद होने के कारण तत्संबंधी निर्णय स्थगित करना पड़ा। बादमें विक्रमकी छठी शताब्दीके आरंभमें सुराष्ट्रके वल्लभी नगरमें देवधिगणी क्षमा-श्रमणको अध्यक्षतामें श्वेतांबर मान्यताके आगमोंको सर्वप्रथम संकलित एवं लिपिबद्ध किया गया था । श्वेतांबर साधु जिनप्रभ सूरि कृत 'मथुरापुरी कल्प' में लिखा है, जब शूरसेन प्रदेशमें द्वादशवर्षीय भाषण दुर्भिक्ष पड़ा था, तब आर्य स्कंदिलने संघको एकत्र कर आगमोंका अनुयोग किया था। मथुराके प्राचीन देवनिर्मित स्तूपमें एक पक्षके उपवास द्वारा देवताकी आराधनाकर जिनप्रभ श्रमणने दीमकोंसे खाये हुए त्रुटित 'महानिशीथ सूत्र' की पूर्ति की थी। साहित्य-प्रणयन-जैनधर्मका प्राचीन साहित्य अर्धमागधी प्राकृतमें है, जिसे 'जैन प्राकृत' कहा जाता है। बादका साहित्य संस्कृत, अपभ्रंश और प्रांतीय भाषाओं में रचा हुआ उपलब्ध है । प्राचीन साहित्यमें प्रमुख स्थान आगमोंका है। उनके पश्चात् पुराणोंका महत्त्व माना जाता है। पुराणोंमें जैन तीर्थंकरोंकी महिमाका वर्णन किया गया है। उनके साथ राम और कृष्णका भी उल्लेख हुआ है; किंतु उनके चरित्र जैन विद्वानों ने वैष्णव विद्वानोंकी अपेक्षा कुछ भिन्न दृष्टिकोणसे लिखे हैं । वासुदेव कृष्णको तीर्थकर नेमिनाथजीका भाई माना गया है, अतः कृष्णके पिता वसुदेव, भाई बलभद्र और पुत्र प्रद्युम्नके चरित्र लिखने में जैन विद्वानोंने बड़ी रुचि प्रकट की है। ऐसे ग्रंथोंमें जिनसेनाचार्य कृत 'हरिवंश पुराण' विशेष रूपसे उल्लेखनीय है। यह 66 सर्गोका विशाल ग्रंथ है । इसकी रचना सं0 840 में हई थी। इसके आरंभिक सर्गोमें अन्य तीर्थंकरोंका संक्षिप्त कथनकर 18 वें सर्ग से 61 सर्ग तक तीर्थंकर नेमिनाथजीका और उनके साथ वसुदेव, वासुदेव, कृष्ण, बलभद्र तथा प्रद्युम्नका अत्यंत विशद वर्णन किया गया है। सबके अंतमें भगवान महावीरका चरित्र वर्णित है। २८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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