Book Title: Prachin Navin ya Samichin Author(s): Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf View full book textPage 2
________________ ४|विशिष्ट निबन्ध : 373 "जनोऽयमन्यस्य मृतः पुरातनः पुरातनैरेव समो भविष्यति / पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् // " आज जिसे हम नवीन कहकर उड़ा देना चाहते हैं वही व्यक्ति मरनेके बाद नई पीढ़ीके लिए पुराना हो जायगा और पुरातनोंकी गिनतीमें शामिल हो जायगा। प्राचीनता अस्थिर है। जिन्हें आज हम पुराना कहते हैं वे भी अपने जमाने में नये रहे होंगे और उस समय जो नवीन कहकर दुरदुराये जाते होंगे वे हो आज प्राचीन बने हुए हैं। इस तरह प्राचीनता और पुरातनता जब कालकृत है और कालचक्रके परिवर्तनके अनुसार प्रत्येक नवीन पुरातनोंकी राशिमें सम्मिलित होता जाता है तब कोई भी विचार बिना परीक्षा किये इस गड़बड़ पुरातनताके नामपर कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? "विनिश्चयं नैति यथा यथालसस्तथा तथा निश्चितवत्प्रसीदति / अवन्ध्यवाक्या गुरवोऽहमल्पधीरिति व्ययस्यन् स्ववधाय धावति // " प्राचीनतामढ़ आलसी जड़ निर्णयकी अशक्ति होनेके कारण अपने अनिर्णयमें ही निर्णयका भान करके प्रसन्न होता है / उसके तो यही अस्त्र हैं कि अवश्य ही इसमें कुछ तत्त्व होगा? हमारे पुराने गुरु अमोघवचन थे, उनके वाक्य मिथ्या नहीं हो सकते, हमारी ही बुद्धि अल्प है जो उनके वचनों तक नहीं पहुँचती आदि / इन मिद्धावृत आलसी पुराणप्रेमियोंकी ये सब बुद्धिहत्याके सीधे प्रयत्न हैं और इनके द्वारा वे आत्मविनाशकी ओर ही तेजीसे बढ़ रहे है। "मनुष्यवृत्तानि मनुष्यलक्षणैर्मनुष्यहेतोनियतानि तैः स्वयम् / अलब्धपाराण्यलसेषु कर्णवानगाधपाराणि कथं ग्रहीष्यति ? // " जिन्हें हम पुरातन कहते हैं वे भी मनुष्य ही थे और उन्होंने मनुष्योंके लिए ही मनुष्यचरित्रोंका वर्णन किया है। उनमें कोई दैवी चमत्कार नहीं था। अतः जो आलसी या बुद्धि जड़ हैं उन्हें ही वे अगाध गहन या रहस्यमय मालम हो सकते हैं पर जो समीक्षक चेता मनस्वी हैं वह उन्हें आँख मदकर 'गहन रहस्य' के नामपर कैसे स्वीकार कर सकता है ? “यदेव किंचित् विषमप्रकल्पितं पुरातनरुक्तमिति प्रशस्यते। विनिश्चताप्यद्य मनुष्यवाक्कृतिर्न पठ्यते यत्स्मृतिमोह एव सः॥" कितनी भी असम्बद्ध और असंगत बातें प्राचीनताके नामपर प्रशंसित हो रहो हैं और चल रही हैं। उनकी असम्बद्धता 'पुरातनोक्त और हमारी अशक्ति' के नामपर भूषण बन रही है तथा मनुष्यकी प्रत्यक्षसिद्ध बोधगम्य और युक्तिप्रवण भी रचना आज नवीनताके नामपर दुरदुराई जा रही है। यह तो प्रत्यक्षके ऊपर स्मृति की विजय है / यह मात्र स्मृतिमूढ़ता है / इसका विवेक या समीक्षणसे कोई सम्बन्ध नहीं है। "न गौरवाक्रान्तमतिविगाहते किमत्र युक्तं किमयुक्तमर्थतः।। गुणावबोधप्रभवं हि गौरवं कुलाङ्गनावृत्त मतोऽन्यथा भवेत् // " पुरातनके मिथ्यागौरवका अभिमानी व्यक्ति युक्त और अयुक्तका विचार ही नहीं कर सकता। उसको बुद्धि उस थोथे बड़प्पनसे इतनी दब जाती है कि उसकी विचारशक्ति सर्वथा रुद्ध हो जाती है / अन्तमें आचार्य लिखते हैं कि गौरव गुणकृत है। जिसमें गुण है वह चाहे प्राचीन हो या नवीन या मध्ययुगीन, गौरवके योग्य है। इसके सिवाय अन्य गौरवके नामका ढोल पीटना किसी कुशीला कुलकामिनोका अपने कुलके नामसे सतीत्वको सिद्ध करनेके समान ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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