Book Title: Prachin Jain Sahitya ke Sandarbh me Bharatiya Shasan Vyavastha
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

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Page 1
________________ प्राचीन जैन साहित्य के संदर्भ में भारतीय शासन व्यवस्था (डॉ. तेजसिंह गौड़) जैन साहित्य का अनुशीलन करने के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रारम्भ में कुलकरों की व्यवस्था थी । मानव अपनी समस्त आवश्यकताओंकी पूर्ति कल्पवृक्षों के माध्यम से कर लिया करता था। कुल की व्यवस्था व संचालन करने वाला सर्वेसर्वा, जो पूर्ण प्रतिमा सम्पन्न होता था, उसे 'कुलकर' कहा गया है।" कुलकर को व्यवस्था बनाये रखने के लिए अपराधी को दण्डित करने का भी अधिकार था । कुलकर विमलवाहन शासक के समय में कुछ समय तक अपराधों में न्यूनता रहीं, पर कल्पवृक्षों के क्षीणप्राय होने से युगलों का उन पर ममत्व बढ़ने लगा एक युगलिया जिस कल्पवृक्ष का आश्रय लेता था उसीका आश्रय अन्य युगल भी ले लेता था, इससे कलह व वैमनस्य की भावनाएँ तीव्रतर होने लगी स्थिति का सिंहावलोकन करते हुए नीतिज्ञ कुलकर विमलवाहन ने कल्पवृक्षों का विभाजन कर दिया । दण्डनीति : आवश्यकता आविष्कार की जननी है कहावत के अनुसार जब समाज में अव्यवस्था फैलने लगी । जनजीवन अस्तव्यस्त हो उठा, तब अपराधी मनोवृत्ति पर नियंत्रण करने के लिए उपाय खोजे जाने लगे और उसी के परिणामस्वरूप दण्डनीति का प्रादुर्भाव हुआ ।" कहना अनुचित न होगा कि इससे पूर्व किसी प्रकार की कोई दण्डनीति नहीं थी, क्योंकि उसकी आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुईं। जैन साहित्य के अनुसार सर्वप्रथम हाकार, माकार और 'धिक्कार' नीति का प्रचलन हुआ। जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : हाकार नीति :- इस नीति का प्रचलन कुलकर विमलवाहन के समय हुआ । इस नीतिके अनुसार अपराधी को खेदपूर्वक प्रताड़ित किया जाता था "हा ! अर्थात् तुमने यह क्या किया ?" देखने में यह केवल शब्द प्रताड़ना है किंतु यह दण्ड भी उस समय का एक महान दण्ड था । इस 'हा' शब्द से प्रताड़ित होने मात्र से ही अपराधी पानी-पानी हो जाता था। इसका कारण यह था कि उस समय का मनुष्य वर्तमान मनुष्य की भांति उच्छृंखल एवं अमर्यादित नहीं था। यह तो स्वभाव से लज्जाशील और संकोची था । इसलिये इस 'हा' वाले दण्ड को भी वह ऐसा समझता था मानो उसे मृत्युदण्ड मिल रहा हो । यह नीति कुलकर चक्षुष्मान के समयतक बराबर चलती रही। माकार नीति :- कोई एक प्रकार की नीति एकाई नहीं होती है। देशकाल परिस्थिति के अनुसार नीति में परिवर्तन भी होता है। यही बात प्रथम 'हाकार नीति के लिए सत्य प्रमाणित हुई । स्थानांग सूत्र वृत्ति ७६०/५१०/१ ऋषभदेव : एक परीशिलन, पृ. १२१ स्थानांग वृत्ति प. ३९९-१ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-काळाधिकार, ७९ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International लि FPIFC She ** plast 'हाकार' नीति जब विफल होने लगी तो अपराधों में और वृद्धि होने लगी, तब किसी नवीन नीति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी । तब चक्षुष्मान के तृतीय पुत्र कुलकर यशस्वी ने अपराध भेद का अर्थात् छोटे बड़े अपराध के मानसे अलग अलग नीति का प्रयोग प्रारम्भ किया। कहने का तात्पर्य यह कि अपराधों का वर्गीकरण किया। छोटे अपराधों के लिए तो 'हाकार नीति' का ही प्रयोग रखा तथा बड़े अपराधों के लिए 'माकार नीति' का आरम्भ किया। यदि इससे भी अधिक कोई करता तो उस अपराधी को दोनों प्रकार की नीतियों से दण्डित करना प्रारम्भ किया । 'माकार' का अर्थ था 'मत करो ।' यह एक निषेधात्मक महान दण्ड था । इन दोनों प्रकार की दण्डनीतियों से व्यवस्थापन कार्य यशस्वी के पुत्र 'अमिचचन्द्र तक चलता रहा। धिक्कार नीति : समाज में अभाव बढ़ता जा रहा था । उसके साथ ही असंतोष भी बढ़ रहा था जिसके परिणामस्वरूप उच्छृंखलता दुष्टता का भी एक प्रकार से विकास ही हो रहा था । ऐसी स्थिति ' में हाकार और माकार नीति कब तक व्यवस्था चला सकती थी । एक दिन माकार नीति भी विफल होती दिखाई देने लगी और अब इसके स्थान पर किसी नई नीति की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। तब माकार नीति की असफलता से 'धिक्कारनीति' का जन्म हुआ ।" यह नीति कुलकर प्रसेनजित से लेकर अंतिम कुलकर नामितक चलती रही। इस 'धिक्कार' नीति के अनुसार अपराधी को इतना कहा जाता था 'धिक् अर्थात् तुझे धिक्कार है, जो ऐसा कार्य किया ।' इस प्रकार यदि अपराधों के मान से वर्गीकरण किया जाये तो वह इस प्रकार होगा जघन्य अपराध वालों के लिए 'खेद' मध्यम अपराध वालों के लिए' 'निषेध' और उत्कृष्ट अपराध वालों के लिए 'तिरस्कार' सूचक दण्ड मृत्युदण्ड से भी अधिक प्रभावशाली थे 1 कुलनाभि तक अपराधवृत्ति का कोई विशेष विकास नहीं हुआ था, क्योंकि उस युग का मानव, स्वभाव से सरल और हृदय से कोमल था ।" प्रथम राजा अंतिम कुलकर नाभि के समय में ही जब उनके द्वारा अपराध निरोध के लिए निर्धारित की गई धिक्कारनीति का (८३) स्थानांग वृत्ति पृ. ३९९ त्रिषष्टि शलाका १/२/१७६-१७९ स्थानांग वृत्ति प. ३९९ धिगधिक्षेपार्थ एव तस्य करणं उच्चारणधिक्कारः । ऋषभदेव एक परिशीलन पृ. १२३ जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति संस्कार सूत्रे १४ For Private & Personal Use Only यहाँ न अति करना कभी, किसी तरह इन्सान | जयन्तसेन कर के अति, बना मनुज शैतान ॥ www.jainelibrary.org.

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