Book Title: Prachin Digambariya Grantho me Swetambariya Agamo ke Avataran Author(s): Bechardas Doshi Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 1
________________ पं० बेचरदास जीवराज दोशी प्राचीन दिगम्बरीय ग्रन्थों में श्वेताम्बरीय आगमों के अवतरण जैनधर्म के दिगम्बर और श्वेताम्बर भेदों को बहुत-बहुत गंभीर विचार करने के बाद भी मैं समझ नहीं सकता, फिर भी हमारा समाज इन भेदों को मान कर चल रहा है, इसी दृष्टि से यहाँ इन भेदों का उल्लेख किया गया है. जैन आगमों में तो स्पष्ट कहा गया है कि-'जो वि दुवत्थ-तिवत्थो बहुवत्थ अचेलगो व संथरइ, न हु ते हीलंति पर संघे वि अ ते जिणाणाए.' -आचारांग द्वि श्रु० सूत्र २८६ तात्पर्य यह है कि कोई मुनि द्विवस्त्री हो अर्थात् केवल दो वस्त्र रखता हो, कोई तीन वस्त्र धारण करता हो, कोई बहुवस्त्री हो अथवा कोई अचेलक (चेल-वस्त्र से रहित) हो, और अपनी संयमसाधना कर रहा हो तो वे सब प्रकार के मुनि एक दूसरे की अवहेलना नहीं करते, क्योंकि वे सब जिन भगवान् की आज्ञा के अनुसार चल रहे हैं. और भी कहा गया है जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुछणं । तं पि संजमलज्जट्ठा धारेंति परिहरंति य । –दशवकालिक अ०६ गाथा १६ वस्त्र पात्र कंबल और पादपोंछनक-रजोहरण-को संयम की साधना के लिये ही मुनि ग्रहण करते हैं और संयम की साधना के लिये त्याग भी देते हैं. इसका अभिप्राय यह है कि वस्त्रादि उपकरणों की अपेक्षा संयम की साधना के लिये ही है. उत्तराध्ययन सूत्र में जो कहा गया, उसका तात्पर्य यह है कि श्री पार्श्वनाथ के शिष्य वस्त्र रखते थे और महावीर के शिष्य अचेलक भी रहते थे. जब दोनों तीर्थंकरों का एक ही लक्ष्य था तो इस भेद का क्या कारण है? १ श्री पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी के इस प्रश्न का उत्तर भ० महावीर की परम्परा के प्रधान आचार्य गौतम ने इस प्रकार दिया है'निर्ग्रथों को लोग अमुक प्रकार से पहचानें और संयम-साधना की यात्रा चलती रहे, इसी हेतु से लिंग का बाह्य वेशपरिधानादिक का प्रयोजन है और इसी उद्देश्य को लेकर वेशपरिधान विषयक नाना प्रकार की विकल्पना की गई है. हम निर्ग्रन्थ मुनि जनों की प्रमुख प्रतिज्ञा तो जीते जी निर्वाण-साधना के सम्बन्ध में है और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की १. अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो सन्तरुत्तरो। देसियो वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ।। एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं| -उत्तराध्ययन, अ०२३, गाथा०२६-३० ** * * * * * * * * * * ** . . . . . . . . . . . . . Jain Edu! . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .। . । . ... .. . . . . .. .. . . .. .... Fair . . . . . . .. a . . ..... t . . .. . . . . . . . . ... . . . . . . .... on . . . . . . . . . . . . . . . . TITripary.orgPage Navigation
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