Book Title: Prachin Bharatiya Vangamaya me Prayog
Author(s): Ranjan Suridev
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

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Page 2
________________ वेदमें अघोर-मन्त्र और अधोर-मार्ग की चर्चा है। यजुर्वेदमें शिवोपासनापरक एक प्रसिद्ध मन्त्र इस प्रकार है अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोराघोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ।। योग-सम्बन्धी आदेशों और उपदेशों की प्रचुरता उपनिषद्-ग्रन्थों में मिलती है । श्वेताश्वतर उपनिषद्के दूसरे अध्यायमें 'योग' शब्दका सुस्पष्ट उल्लेख मिलता है त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य । ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्य त्स्फटिकशशिनाम् । एतानि रूपाणि पुरस्सराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे । पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते । न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निभयं शरीरम् । लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरसौष्ठवं च । गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्ति प्रथमां वदन्ति ॥ अर्थात्, विद्वान् साधकको चाहिए कि वह अपने सिर, कण्ठ और वक्षको ऊँचा उठाये और शरीरको सीधा रखे । फिर, मनके द्वारा इन्द्रियोंका हृदयमें निरोधकर प्रणव-रूप नौकासे सब भयावने स्रोतोंसे पार हो जाय। योगीके समक्ष कुहरा, धआँ, सूर्य, वाय, अग्नि, जगन, विद्युत, स्कटिकमणि और चन्द्रमाके समान अनेक दश्य दिखाई पड़ते हैं, यह सब योगकी सफलता के सूचक है । पंचमहाभूतोंका भले प्रकार उत्थान होने पर और पंचयोग-सम्बन्धी गुणोंके सिद्ध हो जानेपर योगसे तेजस्वी हुए देहको पा लेनेके बाद साधक रोग, जरा और मृत्युसे मुक्त हो जाता है। देहका हल्का होना, आरोग्य, भोग-निवृत्ति, वर्णकी उज्ज्वलता, स्वरसौष्ठव, श्रेष्ठगन्ध, मलमूत्रकी कमी, यह सब योगको प्रथम सिद्धि बताई गई है। ___ इस प्रकार, उपनिषत्कालमें योग और यौगिक क्रियाओंकी प्रत्यक्ष चर्चा मिलती है। ध्यानबिन्दूपनिषदें ध्यानयोगकी महत्ता बतलाते हुए उपनिषत्कारने कहा है यदि शैलसमं पापं विस्तीर्ण' बहुयोजनम् । भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ॥ अर्थात, यदि पर्वतके समान अनेक योजन विस्तारवाले पाप भी हों, तो भी वे ध्यानयोगसे नष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, और किसी तरह उनका नाश नहीं होता। शिवसंहिताके प्रथम पटलमें महादेवका वचन है--'सब शास्त्रोंको देख और बार-बार विचार करके यह निश्चित हुआ कि योगशास्त्र ही सबसे उत्तम है। योगशास्त्रके मान लेने पर सब कुछका ज्ञान हो जाता है । इसलिए, योगशास्त्रमें ही परिश्रम करना चाहिए, अन्य शास्त्रोंका कुछ प्रयोजन नहीं है। गोरक्षवचनसंग्रहमें तो योग-प्रक्रियाकी अनेक गूढ़ बातोंको विशदतापूर्वक बताया गया है। योगिनीहृदयमें कहा गया है कि जिस व्यक्तिकी कम-से-कम छह महीने साथ रहकर परीक्षा कर ली गई हो, उसे ही योगविद्या देनी चाहिए । योगविद्या जानने पर तत्काल आकाश-संचरणकी शक्ति प्राप्त हो जाती है। विष्णुपुराणमें 'धारणा' के सम्बन्धमें बड़ी विशदतासे चर्चा की गई है। इस छठे अंग धारणासे ही विविध : २७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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