Book Title: Prachin Bharatiya Murtikala ko Mevad ki Den Author(s): Ratnachandra Agarwal Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 8
________________ प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मेवाड़ की देन | 215 आयुध विद्यमान हैं / प्राचीन पौराणिक साहित्य के नारायणी-दुर्गा भाव को चरितार्थ करने वाली यह राजस्थानी प्रतिमा अपने वर्ग की बहुमूल्य कृति है, यद्यपि उड़ीसा में भुवनेश्वर की कला में भी कुछ ऐसी मूर्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। जगत के अम्बिका-मंदिर के समा-मण्डप में 'नृत्यगणपति' की भव्य प्रतिमा सफेद पत्थर की बनी है और गणेश को 'चतुर' मुद्रा में प्रदर्शित करती है। मेवाड़ की यह गणेश मूर्ति भी अपने वर्ग की महत्त्वपूर्ण कला-निधि है। ऐसी स्वतन्त्र प्रतिमाएँ बहुत ही कम संख्या में मिलती हैं / निश्चित ही जगत की शिल्प-कला व प्रस्तर-प्रतिमाएँ मध्यकालीन राजस्थानी कला के गौरव की सामग्री है / आयड़ ग्राम के मीरां-मंदिर के बाहर जुड़े हुए कृष्णलीला फलक का उल्लेख किया जा चुका है / मेवाड की प्राचीन मूर्तिकला में (१५वीं शती से पूर्व) कृष्ण-जीवन सम्बन्धी संदर्भ अत्यल्प संख्या में उपलब्ध हैं। नागदा के सासमंदिर के सभा-मण्डप के स्तम्भों पर रामायण सम्बन्धी दृश्य खुदे हैं परन्तु मेवाड़ी मंदिर के बाहरी भागों में इस प्रकार की शिलाएँ प्रायः नगण्य हैं / बहू-मंदिर के गर्भगृह के बाहर एक लघु मूर्ति रावणानुग्रह भाव को चरितार्थ करती हैं / 000000000000 000000000000 - एक मेवाड़ की प्राचीन मूर्तिकला की यह संक्षिप्त झांकी समूचे राजस्थान की ही नहीं अपितु भारत की शिल्पकला में अपना महत्त्वपूर्ण अस्तित्व रखने में पूर्णतया समर्थ है। विदेशी आक्रमणों के थपेड़े खाकर भी इस प्रदेश के देवभवन व प्रस्तर प्रतिमाएँ आज भी पर्याप्त मात्रा में बचे हैं। यह कलात्मक धारा ११वीं शती के उपरान्त भी मेवाड़ में बहती रही / १५वीं शती में महाराणा कुम्भा ने समय-समय पर प्रोत्साहन प्रदान किया था। इतना ही नहीं उनके समय के दो राजशिल्पी-परिवार बहुत सक्रिय बने रहे। चित्तौड़ दुर्ग पर सूत्राधार जइता व उसके पुत्रों ने कीर्तिस्तम्भ का निर्माण किया और दूसरी ओर खेती पुत्र सूत्रधार 'मण्डन' नागदा एवं कुंभलगढ़ के शिल्प-कार्यों की देख-रेख करता था / दोनों ही परिवार कुशल कलाकार थे / पर्याप्त मात्रा में प्रेरणा लेकर सूत्रधार मण्डन ने अनेकों शिल्प एवं स्थापत्य विषयक ग्रंथों की रचना भी की जिनमें रूप मण्डन, देवतामूर्तिप्रकरण, राजवल्लभ, राजाप्रासाद....'आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं / ऐसा प्रतीत होता है कि मण्डन के उत्तराधिकारियों ने उदयपुर के महलों, जगदीश मंदिर व राजसमुद्र की नौचौकी के निर्माण कार्य में अतुल सहयोग प्रदान कर मेवाड़ के प्राचीन शिल्प व हस्तकला-कौशल को अक्षुण्ण बनाए रखा / उनकी अनेक कृतियाँ भारतीय मूर्तिकला की महत्त्वपूर्ण निधि के रूप में आज तक सुरक्षित हैं। ------------ साधना की पगडंडी पहाड़ की चढ़ाई के समान है, यह इतनी संकड़ी है कि इसके दोनों ओर गहरी खाइयां हैं, एक ओर राग की गहरी खाई है दूसरी ओर द्वेष की। साधक वह है जो संभल-संभल कर कदम धरता है, और साव- 1 धानी पूर्वक चलता हुआ अपने गंतव्य पर पहुंच जाता है। -'अम्बागुरु सुवचन' ------ AULIPage Navigation
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