Book Title: Paumchariya ke Rachnakal Sambandhi Katipay Aprakashit Tathya
Author(s): K Rushabhchandra
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 6
________________ wwwwwwwwmi ८८२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय होती तो रविषेण सांप्रदायिक भावना को देखते हुए अपने ग्रन्थ का नाम रामचरितम् ही रखते न कि पद्मचरितम्. जहाँ-जहाँ पर भी त्रेसठ शलाकापुरुषों के संदर्भ आये हैं वहाँ-वहां पर बलदेवों के व्यक्तिगत नामों के उल्लेख छोड़ दिये गये हैं, क्योंकि यदि उनके नाम अपनी परम्परा के अनुसार गिनाते तो वह मान्यता उनके ग्रन्थ के नामकरण से विपरीत ही ठहरती. इन सब मुद्दों के आधार पर कहने की आवश्यकता नहीं कि पद्मचरितम् पउमचरियं का संस्कृत रूपान्तर मात्र है. पद्मचरितम् का रचनाकाल ईस्वी सन् ६७७ है, अतः पउमचरियं इससे पूर्व की रचना होनी चाहिए. पउमचरियं के अन्तःपरीक्षण तथा अन्य बाह्य आधारों पर से इतना सुनिश्चित हो जाता है कि यह रचना पांचवीं शती के पूर्व की नहीं और सातवीं शती के बाद की नहीं. अब प्रश्न यह उठता है कि प्रशस्ति में दिये गये महावीर निर्वाण के ५२० वे वर्ष से क्या अर्थ निकालना चाहिए ? मालूम होता है कि यह महावीर निर्माण का संवत् नहीं होकर और कोई दूसरा संवत् होना चाहिए. इस दृष्टि से शकसंवत् और कृत या विक्रमसंवत् विचारणीय है. शक संवत् के अनुसार पउमचरियं का रचनाकाल ६६५ ईस्वी होगा जो रविषेण के पद्मचरितम् से बारह वर्ष पूर्व ठहरता है. इस संवत् को मानने में एक प्रबल आपत्ति आती है. आचार्य रविषेण के ग्रन्थ को पढ़ने से मालूम होता है कि वह एक सांप्रदायिक ग्रन्थ बन गया है. उसमें अनेक स्थानों पर दिगम्बरत्व का प्रदर्शन है. दीक्षा को भी दैगम्बरी दीक्षा कहा गया है. पउमचरियं में इस विषय संबंधी उदारता है. किसी संप्रदायविशेष की ओर आग्रह नहीं है. सिर्फ एक ही स्थान पर श्वेताम्बर साधु का उल्लेख आ जाने से सांप्रदायिकता नहीं आ जाती. महत्त्व की बात तो यह है कि वे किसी संप्रदाय का पक्ष लेते हैं या नहीं. ग्रन्थ में वर्णित अनेक तत्त्वों का पृथक्करण आज भी प्रचलित परम्पराओं की दृष्टि से किया जाय तो श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय सभी संप्रदायों का उस ग्रन्थ में समावेश हो जाता है. इसीलिए कुछ विद्वान् विमलसूरि को अपने-अपने संप्रदाय का सिद्ध करने के लिए तत् तत् तत्त्वों का सहारा लेते हैं. वास्तव में बात यह है कि विमलसूरि के ऊपर सांप्रदायिकता का कोई प्रभाव नहीं है. उन्होंने जो कुछ सुना, देखा, पढ़ा और परम्परा से प्राप्त किया उसी का वर्णन किया है. यहां तक कि कुछ वस्तुएँ तो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के प्रतिकूल जाती हैं और कुछ उनके अपने पूर्व कथन के भी विपरीत पड़ती हैं. कल्याणविजयजी का अभिप्राय है कि सांप्रदायिक पृथक्करण की प्रथा और एक दूसरे को श्वेताम्बर दिगम्बर कहने की परम्परा विक्रम की सातवीं शताब्दी से प्रचलित हुयी है.' इस कट्टरता का पउमचरियं में अभाव है जबकि पद्मचरितम् इस भेदपरक परम्परा का महत्त्वपूर्ण उदाहरण है और ध्यान देने योग्य है कि इस भेदपरक परम्परा को दृढ़ बनने में काफी समय गुजरा होगा, सिर्फ दस या पन्द्रह वर्ष में इतनी उग्रता नहीं बढ़ी होगी. दोनों संप्रदायों को यह मान्य है कि उनका विभाजन विक्रम की दूसरी शताब्दी में हो गया था, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उस विभाजन के तत्काल बाद ऐसी उग्रता आगयी होगी. इस कट्टरता का बीजारोपण एक तरफ कुन्दकुन्दाचार्य के समय से हुआ जान पड़ता है और इसके दृढ़ होने के प्रमाण दूसरी तरफ जिनभद्र के विशेषावश्यकभाष्य में प्राप्त होते हैं. इसलिए इन दोनों व्यक्तियों के बाद की तो यह रचना हो ही नहीं सकती. यदि ऐसा होता तो उस समय की परिस्थितियों का प्रभाव अवश्य पउमचरियं में उपस्थित रहता. कुन्दकुन्दाचार्य के बहुत पहले की यह रचना नहीं भी हो तो उनके आसपास या कुछ ही समय पूर्व या पश्चात् की होनी चाहिए. दूसरी दलील यह है कि क्या सिर्फ बारह वर्ष पश्चात् ही रविषेणाचार्य एक उदारचरित कथा को दिगम्बर रूप देने की हिम्मत कर सकते थे ? क्या किसी भी क्षेत्र से आलोचना या विरोध होने का उनको भय नहीं था और विशेषतः उस अवस्था में जब कि उन्होंने विमलसूरि का प्रत्यक्षतः स्मरण भी नहीं किया था. संभव यह प्रतीत होता है कि पउमचरियं समान रूप से दोनों पक्षों को पर्याप्त समय तक मान्य रहा होगा और समय व्यतीत होते-होते जैसे-जैसे सांप्रदायिक कट्टरता बढ़ती गयी तब रविषेणाचार्य ने अपने सम्प्रदाय में रामचरित विषयक ग्रन्थ की आवश्यकता महसूस १. श्रमण भगवान् महावीर पृ० ३०५. Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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