Book Title: Pashchtya Vidwano ka Jain Vidya ko Yogdan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 4
________________ ५७६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन पन्थ : षष्ठम खण्ड अपभ्रंश भाषा का अध्ययन बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक प्राकृत और अपभ्रंश में कोई विशेष भेद नहीं माना जाता था । किन्तु पाश्चात्य विद्वानों की खोज एवं अपभ्रंश साहित्य के प्रकाश में आने से अब ये दोनों भाषाएँ स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में आ गयी हैं और उन पर अलग-अलग अध्ययन-अनुसन्धान होने लगा है। अपभ्रंश भाषा और साहित्य के क्षेत्र में अब तक हुए अध्ययन और प्रकाशन का विवरण डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने परिश्रमपूर्वक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया है। उससे ज्ञात होता है कि पाश्चात्य विद्वानों ने भी अपभ्रंश भाषा का पर्याप्त अध्ययन किया है। रिचर्ड पिशल ने प्राकृत व्याकरण के साथ अपभ्रशभाषा के स्वरूप आदि का भी अध्ययन प्रस्तुत किया। १८८० ई० में उन्होंने 'देशी नाममाला' का सम्पादन कर उसे प्रकाशित कराया, जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि अपभ्रश भाषा जनता की भाषा थी और उसमें साहित्य भी रचा जाता था। आपके मत का लास्सन ने भी समर्थन किया । १६०२ ई० में पिशल द्वारा लिखित 'माटेरिआलिसन त्सुर डेस अपभ्रंश' पुस्तक बलिन से प्रकाशित हुई, जिसमें स्वतन्त्र रूप से अपभ्रंश का विवेचन किया गया। जिस प्रकार प्राकृत भाषा के अध्ययन का सूत्रपात करने वाले रिचर्ड पिशल थे, उसीप्रकार अपभ्रंश के ग्रन्थों को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने वाले विद्वान् डॉ. हमन जैकोबी थे। १९१४ ई० में जैकोबी को भारत के जैन-ग्रन्थ भण्डारों में खोज करते हुए अहमदाबाद में अपभ्रंश का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भविसयत्तकहा' प्राप्त हुआ तथा राजकोट में 'नेमिनाथ चरित' की पाण्डुलिपि मिली । जैकोबी ने इन दोनों ग्रन्थों का सम्पादन कर अपनी भूमिका के साथ इन्हें प्रकाशित किया। तभी से अपभ्रंश भाषा के अध्ययन में भी गतिशीलता आयी। अपभ्रंश का सम्बन्ध आधुनिक भाषाओं के साथ स्पष्ट होने लगा। अपभ्रंश भाषा के तीसरे विदेशी अन्वेषक मनीषी डॉ० एल० पी० टेस्सिटरी हैं, जिन्होंने राजस्थानी और गुजराती भाषा का अध्ययन अपभ्रश के सन्दर्भ में किया है। सन् १९१४ से १६१६ ई. तक आपके विद्वत्तापूर्ण लेखों ने अपभ्रंश के स्वरूप एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं के साथ उसके सम्बन्धों को पूर्णतया स्पष्ट कर दिया । टेस्सिटरी के इन लेखों के अनुवादक डा० नामवरसिंह एवं डा० सुनीतिकुमार चाटुा इन लेखों को आधुनिक भारतीय भाषाओं और अपभ्रंश को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में स्वीकार करते हैं। इस बात की पुष्टि डा. ग्रियर्सन द्वारा अपभ्रंश के क्षेत्र में किये गये कार्यों से हुई है। डा० ग्रियर्सन ने 'लिग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया' के प्रथम भाग में अपभ्रंश पर विशेष विचार किया है। १६१३ ई० में ग्रियर्सन ने मार्कण्डेय के अनुसार अपभ्रंश भाषा के स्वरूप पर विचार प्रस्तुत करते हुए एक लेख प्रकाशित किया। १९२२ ई० में 'द अपभ्रंश स्तवकाज आफ रामशर्मन' नामक एक और लेख आपका प्रकाश में आया । इसी वर्ष अपभ्रश पर आप स्वतन्त्र रूप से भी लिखते रहे। बीसवीं शताब्दी के तृतीय एवं चतुर्थ दशक में अपभ्रंश पर और भी निबन्ध प्रकाश में आये । हर्मन जैकोबी का 'जूर फाग नाक हेम उसस्प्रंगस अपभ्रंश* एस० स्मिथ का 'देजीमांस दुतीय अपभ्रंश आ पाली तथा लुडविग आल्सडोर्फ का 'अपभ्रश मटेरेलियन जूर केंटनिस, डेस, बेमर कुनजन जू पिशेल' आदि अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । १९३७ ई. में डा. आल्सडोर्फ ने 'अपभ्रश स्टडियन' नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ ही पिपजिंग से प्रकाशित किया, जो अपभ्रश पर अब तक हुए कार्यों का मूल्यांकन प्रस्तुत करता है । १६३६ ई० में लुइगा नित्ति डोलची के 'द अपभ्रंश स्तवकाज आफ रामशर्मन' से ज्ञात होता है कि अपभ्रंश कृतियों के फ्रेंच में अनुवाद भी होने लगे थे। नित्ति होलची ने अपभ्रंश एवं प्राकृत पर स्वतन्त्र रूप से अध्ययन ही नहीं किया, अपितु पिशल जैसे प्राकृत भाषा के मनीषी की स्थापनाओं की समीक्षा भी की है। सन् १९५० के बाद अपभ्रश साहित्य की अनेक कृतियाँ प्रकाश में आने लगीं। अतः उनके सम्पादन और अध्ययन में भी प्रगति हुई । भारतीय विद्वानों ने इस अवधि में प्राकृत-अपभ्रश पर पर्याप्त अध्ययन प्रस्तुत किया है। विदेशी विद्वानों में डा. के. डी. वीस एवं आल्सडोर्फ के नाम उल्लेखनीय हैं । के० डी० बीस ने १९५४ ई. में 'अपभ्रंश स्टडीज' नामक दो निबन्ध प्रस्तुत किये । द्रविड़ भाषा और अपभ्रंश का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए उन्होंने 'ए द्राबिडियन टर्न इन अपभ्रंश,२ 'ए द्राविडियन ईडियम इन अपभ्रंश नामक दो निबन्ध तथा 'अपभ्रंश स्टडीज' का तीसरा" और चौथा निबन्ध १९५९-६१ के बीच प्रकाशित किये। बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में अपभ्रंश भाषा के क्षेत्र में विदेशी विद्वान् तिश्योशी नारा का कार्य महत्त्वपूर्ण है। सन् १९६३ ई० में उन्होंने 'शार्टनिंग आफ द फाइनल वावेल आफ इन्स्ट० सीग० एन एण्ड फोनोलाजी आफ द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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