Book Title: Parshwanathstotram
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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________________ फेब्रुआरी २०११ १२९ आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरि (प्रथम) विरचित श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् म. विनयसागर ‘वदन' का रूपक बनाकर वसन्ततिलका वृत्त में पार्श्वनाथ भगवान की स्तवना की गई है। इसमें स्थल-स्थल पर यमक का एवं अन्य अलङ्कारों का प्रयोग किया गया है । इसकी १६वीं शताब्दी की प्रति श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर के सङ्ग्रह में प्राप्त होने से इसके प्रणेता श्रीजिनराजसूरि प्रथम ही प्रतीत होते हैं । श्री जिनराजसूरि जी सवा लाख श्लोक प्रमाण न्याय ग्रन्थों के अध्येता थे । आपने अपने करकमलों से सुवर्णप्रभ, भुवनरत्न और सागरचन्द्र इन तीन मनीषियों को आचार्य पद प्रदान किया था । ___सं. १४६१ में अनशन आराधनापूर्वक देवकुलपाटक (देलवाड़ा) में स्वर्गवासी हुए । देलवाड़ा के सा० नान्हक श्रावक ने आपकी भक्तिवश मूर्ति बनवा कर श्रीजिनवर्द्धनसूरिजी से प्रतिष्ठित करवाई जो आज भी देलवाड़ा में विद्यमान है । इस मूर्ति पर निम्नलिखित लेख उत्कीर्णित है - "सं० १४६९ वर्षे माघ सुदि ६ दिने ऊकेशवंशे सा० सोषासन्ताने सा० सुहड़ा पुत्रेण सा० नान्हकेन पुत्र वीरमादि परिवारयुतेन श्रीजिनराजसूरिमूर्तिः कारिता प्रतिष्ठिता श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनवर्द्धनसूरिभिः" । प्रस्तुत है स्तोत्र : पार्श्वनाथ स्तोत्र आनन्दनं सम[सुरा]सुर-मानवानां, संजीवनं शुभधियां सुरमानवानाम् । सौभाग्यसुन्दरतया भुवनाभिरामं, श्रीपार्श्वनाथवदनं विनुवामि कामम् ॥१॥ प्रातः पदार्थपटलीविहितावतारं, पश्यन्ति यो जिनमुखं मुकुरानुकारम् । कल्याणकारणमनन्त-मनोविशुद्धि-स्तेषां भवेदिह मनोभिमतार्थसिद्धिः ॥२॥

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