Book Title: Param Yogiraj Anandghanji Maharaj Ashtasahasri Padhate the
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ 30 अनुसन्धान ३६ श्री नाहटाजी का यह लिखना पूर्ण सत्य है कि दो वर्ष तक मैं उनके सामीप्य में रहा, चातुर्मास भी किए । सन् १९५२ में अहमदाबाद में आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी से उक्त पत्र मैंने प्राप्त किया जो कि मेरे संग्रह में सुरक्षित है। श्री नाहटाजी के लिखने पर मैंने इस पत्र को बहुत ढूंढा । अनेक बार सूचियों का अवलोकन किया किन्तु वह पत्र मेरी दृष्टि से ओझल ही रहा । किसी प्रति के साथ संलग्न हो गया था । संयोग से कुछ दिन पूर्व ही यह महत्त्वपूर्ण पत्र मुझे प्राप्त हो गया । उसकी अविकल प्रतिलिपि संलग्न स्वस्ति श्रीभरवृद्धिसिद्धिविधये नत्वा सतत्त्वावलिं, श्रीपार्वं प्रणतामरेन्द्रनिचयं मात्रा सनाथं मुदा । दुष्टोच्छिष्टकुच्चिष्टकामठहठभ्रंसप्रबद्धादरं, हस्त्यारूढमनल्पलोकनिवहैरालोकितं सादरम् ॥१॥ कामः कामितपौरलक्ष्यनयना या निर्ममे स्वाङ्गनाः, स्वस्यामोघसुशस्त्रगेहमबला यस्यां वराङ्गप्रभाः । कर्णे चोच्छलदशुमालकनकप्राजिष्णुसत्कुण्डलचक्रैश्चञ्चलनेत्रसाङ्गनिवहैहारैश्च पाशप्रभैः ॥२॥ लक्ष्मीवासितया जितासुरपुरी लङ्का च वैषम्यतो, यत्र श्राद्धजनो विशेषनिपुणो दानप्रबद्धादरः । भक्तस्तीर्थपतौ रतौ जिनमते नित्यं सुशीलाशयः, सिद्धान्ते धृतधीरलं विरमित: श्रीसद्गुरौ भक्तिमान् ||३|| तस्यां सूर्यपुरी पुरिप्रतिनिधौ श्रीस्वर्गपुर्या रयाच्छीपूज्यप्रवरांहिपायमलैः पूताध्वकायामलम् । गङ्गानीरसुचन्द्रचन्द्रसुदधिस्तम्बेरमाधीश्वरातिश्वेतामलकीतिकीर्तनबलात्श्वेतीकृतायां जनैः ॥४| यद्वक्त्रप्रवरप्रभाभिरभितः सन्तर्जितश्चन्द्रमा - नष्ट्वा संविदधे नभस्यतितरामभ्रभ्रमद्गह्वरे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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