Book Title: Panchvidh Dhyan paddhati Swarup Vishleshan Author(s): Umravkunvar Mahasati Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 3
________________ पंचविध ध्यान-पद्धति : स्वरूप, विश्लेषण /३ सांख्यदर्शन के अनुसार यह जागतिक सष्टि त्रिगुणात्मिका है। सत्त्व, रजस् तथा तमस्-इन तीन गुणों का समवाय-सहवर्तित्व जगत् है । गुणत्रय से प्रतीत होने का प्राशय शुद्ध स्वरूप का अधिगम है । तीनों सीधी अंगुलियां त्रिगुणातीत होने को उत्प्रेरित करती हैं। अंगुष्ठ परमात्मा, ब्रह्म, समाधि या परमधाम का प्रतीक है और तर्जनी जीवात्मा का । तर्जनी और अंगुष्ठ का संयोग जीव के ब्रह्म-सारूप्य, ब्रह्मज्ञान या प्रात्मा की परमात्मभावापन्नता की अोर गतिमत्ता का सूचक है। उपर्युक्त चिन्तन-धारा का आधार लेकर साधक बहिनिरपेक्ष बन आत्मसापेक्ष, अन्ततः परमात्म-सापेक्ष स्थिति प्राप्त करने को तत्पर, उद्यत एवं प्रयत्नशील रहता है। उसका वह अभिक्रम बढ़ता जाता है। ३. दीपकमुद्रा दीपक ज्योति का प्रतीक है । दीपक का अर्थ भी बड़ा सुन्दर है, जो दीप्त करे। दीपकमद्रा में साधक सूखासन या पद्मासन में संस्थित हो अपने दोनों हाथों की मध्यमा अंगुलियों को सीधा करे, उनके सिरों को परस्पर मिलाए, अवशिष्ट अंगुलियों तथा अंगूठों को मोड़े रहे। यों दीप-ज्योति जैसा स्थूल आकार निर्मित होता है। दीपक मुद्रा प्रात्मा की दिव्य ज्योति, शक्ति या ऊर्जा की प्रतीति कराती है। योगमुद्रा द्वारा उत्प्रेरित अन्तर्जगत् की यात्रा में बाह्य उपादान छूटते जाते हैं, अन्तर्जगत् की ओर साधक के कदम बढ़ते जाते हैं, साधक प्रात्मज्योति पर अपने को टिकाता है । इस टिकाव से पूर्वाभ्यास प्राप्त उत्कर्ष की स्थिरता सधती है। यह बड़ी सूक्ष्म, स्फूर्त एवं ज्वलन्त चिन्तनधारा है। इस द्वारा चिन्तनक्रम पर-पराङ मुख और स्वोन्मुख बनता है । साधक आगे बढ़ता जाता है। आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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