Book Title: Panchsutrakam
Author(s): Ajaysagar
Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf

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Page 8
________________ साधु का शरण तहा पसंत-गंभीरासया सावज्जजोग-विरया पंचविहायायारजाणगा परोवयार-निरया पउमाइ-णिदंसणा झाणज्झयणसंगया विसुज्झमाण-भावा साहू सरणं. ६ जिन का आशय- मन के भाव प्रशांत है, (क्षमा के बल से जिसमें कभी कोई चंचलता नहीं आती) और सहज रूप से गहन-गंभीर है (कभी छलकते नहीं): जो करण-करावण-अनुमोदन रूप मन-वचन-काया के सभी सावद्य-पाप योगों से विरत है, मुक्त है; जो पूर्णरूप से परोपकार में ही निरत है, लगे हुए है। कामभोगों से अलिप्तता व निर्मलता आदि के कारण जो पद्म-कमल, शरद ऋतु के सरोवर आदि से तुलना प्राप्त है; जो एकाग्रता पूर्वक विशुद्ध ध्यान व शास्त्रों के अध्ययन में लगे रहते हैं; आगमोक्त अनुष्ठानों के बल से जिनके हृदय के भाव मलिनता का त्याग कर निरंतर विशुद्धता को पा रहे है, ऐसे सम्यग् दर्शन आदि के बल से सिद्धि को साधने वाले साधु भगवंत यावत्-जीवन मेरे शरण है, आश्रय है. धर्म का शरण तहा सुरासुर-मणुय-पूइओ मोहतिमि-रंसुमाली, रागदोस-विसपरममंतो, हेऊ सयल-कल्लाणाणं, कम्मवण-विहावसू, साहगो सिद्ध-भावस्स, केवलि-पण्णत्तो धम्मो जावज्जीवं मे भगवं सरणं.७ जो अतिशक्तिशाली सुर, असुर व मनुष्यों से पूजित हैं; जो जीव को गुमराह करनेवाले मोह रूपी अंधकार के नाश के लिए सर्य के समान हैं; जो आत्मशक्तियों का घात करने वाले राग और द्वेष रूपी महाखतरनाक शंका जीवन का विष है, विश्वास अमृत है.

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