Book Title: Nyayvinischay Vivaran Part 02
Author(s): Vadirajsuri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 18
________________ प्राकथन 1 भट्ट अकलक द्वारा रचित न्यायविनिश्चय पर वादिराज सूरिने न्यायविनिश्चयविवरण नामसे टीका लिखी है । हर्षकी बात है कि भारतीय ज्ञानपीठ बनारस के अधिकारियोंने मेरे मित्र श्री पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य द्वारा सम्पादन कराके इसको मुद्रित किया है तथा मुझे इसका प्राक्कथन लिखनेका सौभाग्य दिया है । भट्ट अकलंक प्राचीन भारतके अद्भुत विद्वान् तथा लोकोत्तर विवेचक ग्रन्थकार तथा जैन वाङ्मयरूपी नक्षत्रलोकके सबसे अधिक प्रकाशमान तारे हैं । दिगम्बर जैन आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित न्यायके सिद्धान्तोंका इन्होंने गम्भीर और ओजस्वी भाषा में विवेचन किया है । दिगम्बर जैन आचार्योंके प्राचीन ग्रन्थोंपर विशद टीका लिखनेवाले उत्तरकालीन आचार्योंकी व्याख्याएं पढ़ने पर ही अकलंक भट्टके मन्तव्य सांगोपांग समझमें आते हैं । 'न्यायविनिश्चय' नाम ही बताता है कि यह प्रमाणवाद तथा तर्कशास्त्रका ग्रन्थ है । मुझे जैन न्यायके जिन ग्रन्थोंके स्वाध्यायका सुयोग मिला है उन सबमें न्यायविनिश्चय पर वादिराजके द्वारा लिखा गया यह 'विवरण' अत्यन्त विस्तृत, सर्वाङ्ग तथा सुबोध है । वादिराज सूरिकी भाषा तथा तर्कशैली निश्चित ही अत्यन्त स्पष्ट और तलस्पर्शी है । धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिककी आलोचना और प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमाणवार्तिकालंकार के विश्लेषणने इस ग्रन्थके महत्त्वको शतगुणित कर दिया है । क्योंकि वार्तिकालंकार प्राचीन भारतीय सभी विचार-धाराओंके दिग्गज विद्वानों द्वारा विचारित समस्त समस्याओंके विवेचनके कारण भारतीय तर्कशास्त्रका विश्वकोष कहा जा सकता है । न्यायविनिश्चय मुख्य रूपसे जैन तर्कशास्त्र के सिद्धान्तोंका प्रतिपादन करता है । इसके अतिरिक्त यह बौद्ध दर्शनके प्रधानाचार्य धर्मकीर्ति तथा उनके अनुगामी विद्वानों द्वारा प्रतिपादित बौद्ध तर्क सिद्धान्तोंका प्रामाणिक वर्णन और विस्तृत समीक्षा भी करता है । निःसन्देह यह ग्रन्थ अत्यन्त क्लिष्ट है और बड़ी कठिनाई से समझमें आता है । जिन्होंने इन बौद्धिक महारथियों तथा इनकी कृतियोंका सांगोपांग अनुगम किया है, उन्हें भी अकलंक भट्टको पढ़ते समय मनको एकाग्र करना पड़ता है । फलतः इस अत्यन्त क्लिष्ट तथापि लोकोत्तर जटिल समस्याओंके समाधानकर्त्ता ग्रन्थका पूरी सावधानी तथा कुशलता के साथ निकला गया यह प्रथम मुद्रित संस्करण असाधारण रूपसे अभिनन्दनीय है । भारतीय ज्ञानपीठ काशीके अधिकारियोंने इसके सम्पादन प्रकाशनादिका जो समुचित योगायोग किया है निःसन्देह वह परमानन्दका विषय है । शायद ही कोई दूसरी संस्था इतना सुन्दर और प्रामाणिक संस्करण निकाल पाती । पं० महेन्द्रकुमारजी जैसे कुछ ही विद्वान् ऐसे कठिन कामको सरलता, सुगमता एवं योग्यता पूर्वक कर सकते हैं। पं० महेन्द्रकुमारजी जैन विचारधारा एवं बौद्ध तर्कशास्त्र के बहुत बड़े पण्डित हैं । वे उन दोनोंसे पूर्णतः परिचित हैं और उन्होंने जो संक्षिप्त पादटिप्पण दिये हैं उनसे भाषा एवं दर्शन सम्बन्धी अनेक जटिल प्रश्नों पर प्रकाश पड़ता है । न्यायविनिश्चय अपनी व्यापक विवेचकता तथा अद्भुत युक्तिवादके लिए ख्यात भारतीय तर्क-शास्त्रका विश्वकोष है । यद्यपि मैं अब तक इसका वैसा पारायण नहीं कर सका हूँ जैसा कि करना चाहिये तथापि ज्यों-ज्यों मैं इसके विषयको देखता हूँ, त्यों-त्यों मुझे आश्चर्य और संतोष होता है । जैन न्यायके इस मौलिक ग्रन्थकी विशेषताएँ विशाल और विविध हैं । प्रज्ञाकर गुप्तकी दुरूह मान्यताएँ और धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिकके तलस्पर्शी विश्लेषण निश्चित ही विशेष जिज्ञासुओंकी रुचिको जाग्रत करेंगे, यद्यपि वर्तमान समय में उनकी संख्या हीयमान है । धर्मकीर्तिके ग्रन्थ तथा टीकाएँ कुछ समय पहिले अपने मूल रूप में प्रकाशित किये गये हैं परन्तु दुर्भाग्यवश वे उतनी कुशलता और सावधानी एवं विद्वत्तासे सम्पादित नहीं हुए जैसा कि पं० महेन्द्रकुमारने किया है । पण्डितजीको जैन और बौद्ध विद्वज्जगत् के विशिष्ट विद्वान् पं० सुखलालजीके पास बैठनेका विशिष्ट सौभाग्य मिला है । हमें अपने लिए धन्य मानना चाहिये कि हमारे देश में अभी ऐसे विद्वान् हैं जो कि हमारे देशकी सच्ची बौद्धिक निधि हैं ।

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