Book Title: Nyayvinischay Vivaran Part 01
Author(s): Vadirajsuri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ १० न्यायविनिश्चयविवरण देहरूप ही आत्मा है तो किन्हीं ने छोटे बड़े शरीर प्रमाण संकोच विकासशील आत्मा का आकार बताया विचारा जिज्ञासु अनेक पगडण्डियों वाले इस शतराहे पर खड़ा होकर दिग्भ्रान्त हुआ था तो दर्शन शब्द के अर्थ पर ही शंका करता है या फिर दर्शन की पूर्णता में ही अविश्वास करने को उसका मन होता है । प्रत्येक दर्शनकार यही दावा करता है कि उसका दर्शन पूर्ण और यथार्थ है । एक ओर मानव की मननशकिमूलक तर्क को जगाया जाता है और जब तर्क अपने दौचन पर आता है तभी रोक दिया जाता है और 'तर्कोऽप्रतिष्ठ' 'सांप्रतिज्ञानात्' जैसे बन्धनों से उसे जकड़ दिया जाता है। 'तर्क से कुछ होने जानेवाला नहीं है' इस प्रकार के तर्कनैराश्यवाद का प्रचार किया जाता है । आचार्य हरिभद्र अपने लोकतत्त्वनिर्णय में स्पष्ट रूप से अतीन्द्रिय पदार्थों में तर्क की निरर्थकता बताते हैं "शायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । कालेनैतावता तेषां कृतः स्यादर्धनिर्णयः ॥” अर्थात् यदि तर्कवाद से अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूप निर्णय की समस्या हल हो सकती होती, तो इतना समय बीत गया, बड़े बड़े तर्कशास्त्री तर्ककेशरी हुए, आज तक उनने इनका निर्णय कर दिया होता । पर अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूपज्ञान की पहेली पहिले से अधिक उलझी हुई है। जय हो उस विज्ञान की जिसने भौतिक तत्त्वों के स्वरूपनिर्णय की दिशा में पर्याप्त प्रकाश दिया है। दूसरी ओर यह घोषणा की जाती है कि "तापात् छेदात् निकषात् सुवर्णमिष पण्डितैः । परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न त्वादरात् ॥” अर्थात् - जैसे सोने को तपाकर, काटकर, कसौटी पर कसकर उसके खोटे-खरे का निश्चय किया जाता है उसी तरह हमारे वचनों को अच्छी तरह कसौटी पर कसकर उनका विश्लेषण कर उन्हें ज्ञानाति में तपाकर ही स्वीकार करना केवल अन्धश्रद्धा से नहीं अन्धी धदा जितनी सस्ती है उतनी शीघ्र प्रतिपातिनी भी । तब दर्शन शब्द का अर्थ क्या हो सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में पहिले ये विचार आवश्यक हैं कि -ज्ञान' वस्तु के पूर्णरूप को जान सकता है या नहीं ? यदि जान सकता है तो इन दर्शन-प्रणेताओं को पूर्ण ज्ञान था या नहीं ? यदि पूर्ण ज्ञान था तो मतभेद का कारण क्या है ? १ शान व चैतन्य शक्तिवाल है यह चैतन्यशक्ति जब बाह्य वस्तु के स्वरूपको जानती है तब ज्ञान क लाती है। इसीलिए शास्त्रों में ज्ञान को साकार बताया है। जब चैतन्यशक्ति को न जान कर स्वचैतन्याकार रहती है तब उस निराकार अवस्था में दर्शन कहलाती है। अर्थात् चैतन्यशक्ति के दो आकार हुए एक ज्ञेयाकार और दूसरा चैतन्याकार शेयाकार दशाका नाम ज्ञान और चैम्बाकार दशाका नाम दर्शन है। चैतन्यशक्ति कांच के समान स्वच्छ भार निर्विकार है। जब उस कांच को पीछे पारेकी कलई करके इस योग्य बना दिया जाता है कि उसमें प्रतिबिम्ब पच सके तब उसे दर्पण कहने लगते हैं जब तक कांच में कलई लगी हुई है तब तक उसमें किसी न किसी पदार्थ के प्रतिविम्ब की सम्भावना है। यद्यपि प्रतिबिम्बाकार परिणमन कांच का ही हुआ है पर वह परिणमन उसका निमित है। उसी तरह निर्विकार चितिशक्ति का शंयाकार परिणमन जिसे हम ज्ञान कहते हैं मन शरीर आदि निमित्तों के आधीन है या थी कड़िये कि जब तक उसकी बद दशा है तब तक बाह्य निमित्तों के अनुसार उसका शेयाकार परिणमन होता रहता है । जब अशरीरी सिद्ध अवस्था में जीव पहुँच जाता है तब सकल उपाधियों से शून्य होने के कारण उसका ज्ञेयाकार परिणमन न होकर शुद्ध चिदाकार परिणमन रहता है। इस विवेचन का संक्षिप्त तात्पर्य यह है

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