Book Title: Nyayakumudchandra
Author(s): Jaykumar Jain
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 2
________________ 24 : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ प्रकरण, जो कि 40 महेन्द्रकुमारजीकी लेखनीगे हो प्रसूत हैं और आचार्य प्रभाचन्द्र के काल निर्धारणमें पर्याप्त सहयोग किया है। साथ ही प्रस्तावनागत ( पृ० 126) अन्य विषयोंके लेखनमें भी पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रीकी सहायता की है / इस प्रकार न्यायकुमुदचन्द्र के प्रथम भागको प्रस्तावनाके लेखनमें पं० महेन्द्रकुमारजीका अनन्य सहयोग रहा है। __ न्यायकुमुदचन्द्र के द्वितीय भागकी प्रस्तावना पं० महेन्द्र कुमारजीने स्वतन्त्र रूपसे लिखी है, जिसमें उन्होंने लघीयस्त्रयके रचयिता भट्टाकलंकदेव एवं उसपर न्यायकूमदचन्द्र नामक टीकाके लेखक आचार्य प्रभाचन्द्र के समयपर पर्याप्त प्रकाश डाला है। प्रभाचन्द्र की इतर वैदिक एवं अवैदिक आचार्योंसे जो उन्होंने तुलना की है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रभाचन्द्र के अन्य ग्रंथोंका परिचय भी उसी प्रस्तावनाका एक अंग है, जिसमें प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंका परिचय देकर उन ग्रन्थोंके प्रभाचन्द्रकृत होनेका सतर्क उल्लेख किया है। इससे प्रस्तावलाका महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है / मलग्रन्थका दोहन करके लिखी गई यह प्रस्तावना मन्दिरके ऊपर रखे गये कलशकी भाँति सुशोभित है और सटिप्पण मलग्रन्थका संशोधन एवं सम्पादन तो उनकी प्रतिभाका निदर्शन है ही।। उपर्युक्तके अतिरिक्त इस प्रस्तावनामें आचार्य प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंका आन्तरिक परीक्षण करके उनके समय आदिपर पूर्वापर दृष्टिसे विचार करते हुये विविध युक्तियों एवं तर्कोका उल्लेख किया है। इस क्रममें आदरणीय पण्डितजीने आचार्य प्रभाचन्द्रके समय आदिपर जो प्रकाश डाला है वह न केवल इतःपूर्व चिन्तित विद्वानोंके मतोंकी समीक्षा ही करता है, अपितु पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री द्वारा स्थापित शंकाओंको बल देता हुआ उनके मतकी पुष्टि भी करता है। अनेकान्तवादको विविध भारतीय दर्शनोंमें महत्त्वपूर्ण स्थान मिल सके, इसके लिये तर्क और युक्तियों से परिपूर्ण वाक्योंका प्रयोग अपेक्षित है / जैनदर्शनका यह अनेकान्तवाद सिद्धान्त मूल रूपसे अहिंसावादको ही दूसरे प्रकारसे पुष्ट करता है। इस सन्दर्भ में गवर्नमेन्ट संस्कृत कॉलेज, बनारसके तत्कालीन प्रिन्सिपल डॉ० मङ्गलदेव शास्त्रीके निम्नाङ्कित विचार ( न्यायकुमुदचन्द्र भाग 2, आदिवचन पृ० 10 ) ध्यातव्य हैं / वे लिखते हैं कि जैनधर्मकी भारतीय संस्कृतिको बड़ी भारी देन अहिंसावाद है, जो कि वास्तवमें दार्शनिक भित्तिपर स्थापित अनेकान्तवादका ही नैतिकशास्त्रकी दृष्टिसे अनुवाद कहा जा सकता है / उपयुक्त उल्लिखित विविध बिन्दुओंपर विचार करनेपर हम इस निष्कर्षपर पहँचते हैं कि पं० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्यकी प्रतिभा अद्भुत् थी। PRORADDA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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