Book Title: Nyaya vinischaya Savrutti Siddhi Vinischaya evam Savivrutti Praman Sangraha Author(s): Kamleshkumar Jain Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 3
________________ Vol. III - 1997-2002 अकलंकदेव कृत न्यायविनिश्चय... २८५ में बौद्ध साहित्य के ही अधिक उद्धरण / अवतरण मिलते हैं । उस पर भी अकलंकदेव ने धर्मकीति को अधिक निशाना बनाया है, अतएव उन्होंने धर्मकीर्ति कृत ग्रन्थों की केवल मार्मिक आलोचना ही नहीं की है, किन्तु परपक्ष के खण्डन में उनका शाब्दिक और आर्थिक अनुसरण भी किया है। अकलंकदेव ने सिद्धिविनिश्चय की स्वोपज्ञ वृत्ति में लगभग बत्तीस उद्धरण दिये हैं। इनमें कोई छ: उद्धरण दो बार प्रयुक्त हुए हैं, जिनमें आगे या पीछे उद्धरण सूचक कोई संकेत या उपक्रम नहीं है, अतः ये सभी वृत्ति के ही अंग प्रतीत होते हैं । सर्वप्रथम कारिका संख्या १/२० की वृत्ति में "यत्पुनरन्यत्" करके "आरामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन"१८ वाक्य उद्धृत किया है। यह बृहदारण्यकोपनिषद् से ग्रहण किया गया है । कारिका संख्या १/२२ की वृत्ति में "यथा यथार्थाः चिन्त्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा"२० वाक्य उद्धत है। यह धर्मकीर्तिकृत प्रमाणवार्तिक की २/२०९ कारिका का उत्तरार्ध है । सम्पूर्ण कारिका इस प्रकार है-२१ "तदेतन्नूनमायातं यद्वदन्ति विपश्चितः । यथा यथार्थाश्चिन्त्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा ॥" कारिका १/२७ की वृत्ति में "मन्यते तथामनन्ति तत्त्वार्थसूत्रकाराः" करके "मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताऽऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्" २२ यह सूत्र उद्धृत किया है । यह सूत्र तत्त्वार्थसूत्र का ही है । कारिका २।८ की वृत्ति में "पश्यत्रयमसाधारणमेव पश्यति"२४ वाक्य उद्धृत है। यही वाक्य कारिका २/१५ की वृत्ति के प्रारम्भ में "पश्यन्नयमसाधारणमेव पश्यति दर्शनात् इति"२५ के रूप में आया है । यहाँ पर उद्धरण सूचक कोई शब्द नहीं है, इसलिए वृत्ति का अंग ही प्रतीत होता है। यह किसी बौद्धग्रन्थ का वचन है, इसका मूल निर्देशस्थल ज्ञात नहीं हो सका है। कारिका २/१२ की वृत्ति में, "यतोऽयं यथादर्शनमेव (मेवेयं) मानमेयफलस्थितिः क्रियते"२६ इत्यादि वाक्य लिया गया है। और "तन्न" करके कारिका ७/११ की वृत्ति में "यथादर्शनमेवेयं मानमेयफलस्थिति:"२७ रूप में एक वाक्य उद्धृत किया है। यह वाक्य या वाक्यांश प्रमाणवार्तिक की कारिका २/३५७ से लिया गया है, जिसमें कुछ पाठभेद मात्र है। मूल कारिका इस प्रकार पायी जाती है-२८ "यथानुदर्शनच्छेयं मानमेयफलस्थितिः । क्रियतेऽविद्यमानापि ग्राह्यग्राहकसंविदाम् ॥ सिद्धिविनिश्चय में कारिका संख्या २/२५ का संगठन इस प्रकार किया गया है- २९ बुद्धिपूर्वां क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद्ग्रहात् । ज्ञायते बुद्धिरन्यत्र अभ्रान्तैः पुरुषैः क्वचित् ॥ __ स्वयं अकलंकदेव ने अपने एक अन्य ग्रन्थ तत्त्वार्थवार्तिक में "उक्त" च" करके इसे निम्न रूप में - बुद्धिपूर्वां क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद्ग्रहात् । मन्यते बुद्धिसद्भावः सा न येषु न तेषु धीः ॥ उद्धृत किया है । धर्मकीर्तिकृत सन्तानान्तरसिद्धि का पहला श्लोक भी इसी प्रकार का है ।३१ Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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