Book Title: Nyaya Vidyamrut
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 1
________________ न्याय - विद्यामृत न्याय एक विद्या है, जिसे न्यायशास्त्र, तर्कशास्त्र, आन्वीक्षिकी विद्या और हेतुविद्या या हेतुवाद कहा गया है। आचार्य अनन्तवीर्यने तो इस न्याय विद्याको अमृत कहा है । परीक्षा - मुखकी व्याख्याके आरम्भमें मङ्गलाचरणके बाद वे लिखते हैं--- 'विद्वत्तासे ओतप्रोत जिन विद्वान् आचार्य माणिक्यनन्दिने अकलङ्कके वचन समुद्रका अवगाहन कर उससे न्यायविद्यारूप अमृतको निकाला अर्थात् परीक्षामुख लिखा उन माणिक्यनन्दिके लिए विनम्रतापूर्वक नमस्कार ( प्रणाम करता हूँ ।' अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुद्दध्र येन धीमता । न्याय - विद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥ यहाँ अनन्तवीर्यने माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखको 'न्यायविद्यामृत' कहा है, जो जैन न्यायका आद्य सूत्र ग्रन्थ है | अमृत जिस प्रकार अमरत्व प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या तत्त्वज्ञानको प्रदान कर आत्माको अमर ( मिथ्याज्ञानादि संसार - बन्धन से मुक्त ) कर देती है । निश्चय ही यह न्याय-विद्याके प्रभावको उद्घोषणा 1 प्रत्यक्षादि प्रमाणको अथवा प्रमाणनयात्मक युक्तिको न्याय कहा है ' । निपूर्वक 'इण्' गमनार्थक धातुसे 'करण' अर्थ में 'धन्' प्रत्यय करनेपर 'न्याय' शब्दकी सिद्धि होती है, जिसका यह अर्थ होता है कि जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान निश्चित रूपमें होता है । तत्त्वार्थसूत्रकारने भी यही लिखा है । वे कहते हैं कि प्रमाण और नयसे जीवादि तत्त्वोंका ज्ञान होता है । अतः तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति के लिए प्रमाण -नयात्मक न्यायविद्याका अध्ययन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। इसलिए ऐसी विद्याको 'अमृत' कहा जाना उपयुक्त है । सभी दर्शनों में इस विद्याका प्रतिपादन और विशेष विवेचन किया गया है। जैन दर्शन में इस विद्याके प्रचुर बीज आचार्य गृद्धपिच्छके" तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध होते हैं । स्वामी समन्तभद्रके देवागम (आप्तभीमांसा), युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र में न्यायका विकासारम्भ प्राप्त है । १. प्रमेय रत्नमाला, प्रथम समुद्देश, श्लोक २ । २. प्रत्यक्षादिप्रमाणं न्यायः । अथवा नयप्रमाणात्मिका युक्तिययः । निर्वादिण्गतावित्यस्माद्धातोः करणे घञ्प्रत्ययः, तेन न्यायशब्दसिद्धिः । नितरां ईयते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति न्यायः । -- वही, टिप्पण पृ० ४ । ३. त० सू० १-६ । ४. न्यायदी० पृ० ५ मूल व टिप्प० । ५. 'तत्त्वार्थ सूत्र में न्यायशास्त्र के बीज' शीर्षक निबन्ध, जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० ७० । ६. इन्होंने अपने ग्रन्थोंमें न्यायशास्त्रकी एक उत्तम एवं योग्य भूमिका प्रस्तुत की है, जिसे जैन न्यायके विकासका आदिकाल कह सकते हैं । देखो, जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० ७ से ११ । - २८१ - ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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