Book Title: Niyamsar ki 53 vi Gatha aur uski Vyakhya evam Arthpar Anuchintan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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________________ 'अस्य सम्यक्त्वपरिणामस्य बाह्यसहकारिकारणं वीतरागसर्वज्ञ-मुखकमलविनिर्गतसमस्तवस्तुप्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानामिति । ये मुमुक्षवः तेप्युपचारतः पदार्थनिर्णयहेतुत्वात् अन्तरङ्गहेतव इत्युक्ता दर्शनमोहनीयकर्मक्षयप्रभृतेः सकाशादिति ।' -नियमसा० टी०, पृ० १०९, सोनगढ़ सं० । अनुवादक द्वारा किया गया दोनोंका हिन्दी अनुवाद ___ गाथा व उसकी इस संस्कृत-व्याख्याका हिन्दी अनुवाद, जो पं० हिम्मतलाल जेठालालशाहके गुजराती अनुवादका अक्षरशः रूपान्तर है, श्री मगनलाल जैनने इस प्रकार दिया है 'सम्यक्त्वका निमित्त जिनसूत्र है। जिनसूत्रके जाननेवाले पुरुषोंको (सम्यक्त्वके) अन्तरंग हेतु कहे हैं, क्योंकि उनको दर्शनमोहके क्षयादिक है ।' (गाथार्थ) । 'इस सम्यक्त्व परिणामका बाह्य सहकारी कारण वीतराग सर्वज्ञके मुखकमलसे निकला हुआ समस्त वस्तुके प्रतिपादनमें समर्थ द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान जो ममक्ष हैं उन्हें भी उपचारसे पदार्थनिर्णयके हेतपने के कारण (सम्यक्त्व परिणामके) अन्तरंग हेत कहे हैं, क्योंकि उन्हें दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयादिक हैं ।' -वही, पृ० १०९ । ___इस गाथा (५३)के गुजराती पद्यानुवादका हिन्दी पद्यानुवाद भी श्री मगनलाल जैनने दिया है, जो इस प्रकार है 'जिनसूत्र समकित हेतु है, अरु सूत्रज्ञाता पुरुष जो। वह जान अन्तर्हेतु जिसके दर्शमोहक्षयादि हो ॥५३॥' उक्त गाथाकी संस्कृत-व्याख्या, प्रवचन, गुजराती और हिन्दी अनुवादोंपर विचार किन्तु उक्त गाथाके संस्कृत-व्याख्याकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा की गयी संस्कृत-व्याख्या, गाथा तथा व्याख्यापर किये गये श्री कानजी स्वामीके प्रवचन, दोनोंके गुजराती और हिन्दी अनुवाद न मूलकार आचार्य कुन्दकुन्दके आशयानुसार हैं और न सिद्धान्तके अनुकूल है । यथार्थ में इस गाथामें आचार्य कुन्दकुन्दने सम्यग्दर्शनके बाह्य और अन्तरंग दो निमित्त कारणोंका प्रतिपादन किया है। उन्होंने कहा है कि 'सम्यक्त्वका निमित्त (बाह्य सहकारी कारण) जिनसूत्र और जिनसूत्रज्ञाता पुरुष हैं तथा अन्तरंग हेतु (अभ्यन्तर निमित्त) दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय आदि हैं।' यहाँ गाथाके उत्तरार्धमें जो ‘पहुदी' शब्दका प्रयोग किया गया है वह प्रथमा विभक्तिके बहुवचनका रूप है। संस्कृत में उसका 'प्रभृतयः' रूप होता है। वह पंचमी विभक्ति--'प्रभृतेः' का रूप नहीं है, जैसा कि संस्कृत-व्याख्याकारने समझ लिया है और तदनुसार उनके अनुसर्ताओं-श्री कानजी स्वामी, गुजराती अनुवादक पं० हिम्मतलाल जेठालाल शाह तथा हिन्दी अनुवादक श्री मगनलाल जैन आदिने भी उसका अनुसरण किया है। 'पहदी' शब्दसे आ० कुन्दकुन्दको दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयोपशम और उपशम इन दोका संग्रह अभिप्रेत है, क्योंकि कण्ठतः उक्त दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयके साथ उन दोनोंका सम्बन्ध है। और इस प्रकार क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक इन तीन सम्यक्त्वोंका अन्तरंग निमित्त क्रमशः दर्शनमोहनीयकर्मके क्षय, क्षयोपशम तथा उपशमको बताना उन्हें इष्ट है। अतएव 'पहुदी' शब्द प्रथमा विभक्तिका बहुबचनान्त रूप है, पंचमी विभक्तिका नहीं । अन्तरंग निमित्त बाह्य वस्तु नहीं होती : सिद्धान्त प्रमाण आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि (१-७) में तत्त्वार्थसूत्रके 'निर्देश स्वामित्वसाधन......' आदि सूत्र (१-७) की व्याख्या करते हुए सम्यग्दर्शन के बाह्य और अभ्यन्तर दो साधन बतलाकर बाह्य साधन तो चारों - ३७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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