Book Title: Nititattva aur Jain Agam Author(s): Subhashmuni Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 4
________________ एवं खु तासु विन्नप्पं संभवं संवासं च वज्जेज्जा । तज्जातिया इसे कामा वज्जकरा य एवमक्खाए ॥ सुयगडांग ४/२/१९ इन स्त्रियों के विषय में बहुत कुछ कहा गया है, इनका परिचय और संसर्ग वर्जित है, नारी संसर्ग जन्य कामभोगों को भगवान् जिनेन्द्र ने आत्म घातक कहा है। विसया विसं व विसमा, विसया वेस्या नरव्व हादकरा | विसय विसाय विसहर, बाधाणसमा मरण - हेऊ ॥ समान विषम है, अग्नि के समान काम-भोग विष के समान मरण के कारण हैं । हासं किडं रई दप्पं, सहभुत्तासियाणि य । बम्भचेररओ थीणं, नाणुचिंते कयाइ वि॥ उत्तरा ९६ / ६ स्त्रियों के साथ मजाक, नाना विध क्रीड़ाए, उनका सहवास, मेरी स्त्री अत्यन्त सुन्दर है, इस प्रकार की दर्पोक्तियाँ स्त्री के साथ बैठ कर भोजन और उसके साथ एक ही पलंग पर बैठना आदि काम-क्रियाओं का सेवन तो दूर रहा, उनका चिंतन भी न करें । दुज्जए कामभोगेय, निच्चसो परिवज्जए । संका ठाणाणि सव्वाणि, वज्जेज्जा पणिहाणवं ॥ उत्तरा १६ / १४ ये काम भोग अजेय है, ये शंका शीलता के प्रमुख कारण है, इसलिये मानसिक एकाग्रता के अभिलाषी को इनका परित्याग ही कर देना चाहिये । काम की निरन्तर अभिलाषा से दुखों की उत्पत्ति होती है । दाहक है, पिशाच, सर्प और व्याघ्र के कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं । उत्तरा ३२ / १९ एए य संगे समइक्कमित्ता, सुदुत्तरा चैव भवति सेसा नारी-संग का अतिक्रमण करते ही विश्व के सभी पदार्थ सुखकारी हो जाते हैं। यह जैन सांस्कृतिक साहित्य का कामनीति सम्बन्धी ग्राह्म एवं आचरणीय दृष्टिकोण है, परन्तु यहाँ यह नहीं भूलना चाहिये कि जैनागम कामासक्ति विरोधी होते हुए भी नारी जाति का विरोधी नहीं है। यहाँ नारी को मोक्षाधिकारिणी माना है, उसे केवल वासना पूर्ति का यन्त्र न कह कर उसे सम्मान्य पूज्य स्थान दिया है। उनका कथन है Jain Education International ननु सन्ति जीवलोके काश्च्छिमशील संयमो पेताः । निजवंशतिलक भूताः श्रुत-सत्यसमन्विता नार्थः ॥ -ज्ञानार्णव, १२ / ५७ शम- शील-संयम से युक्त अपने वंश में तिलक समान श्रुत तथा सत्य से समन्वित नारियाँ धन्य (१९२) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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