Book Title: Niti Manavta Vadi siddhant aur Jain Achar Darshan
Author(s): 
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 2
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - के साथ भी है और वह परलोक के प्रत्यय से इन्कार नहीं करती। मानवतावादी विचारणा में प्राथमिक मानवीय गुण के प्रश्न को लेकर भगवान् बुद्ध ने भी अजातशत्रु को यही बताया था कि मेरे धर्म की प्रमुख रूप से तीन विचारधाराएँ प्रचलित हैं। जैन आचार-दर्शन के साधना का केन्द्र पारलौकिक जीवन नहीं, वरन् यही जीवन है। साथ इनका तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए हम इन तीनों पर मानवतावाद सामान्य रूप से स्वाभाविक इच्छाओं का सर्वथा दमन अलग-अलग विचार करेंगे। उचित नहीं मानता वरन् उसका संयमन आवश्यक मानता है। वह संयम का समर्थक है, दमन का नहीं। उसके अनुसार सच्चा नैतिक जीवन आत्मचेतनावादी दृष्टिकोण और जैनदर्शन इच्छाओं के दमन में नहीं वरन् उनके संयमन में है। मानवतावादी विचारकों में आत्मचेतनाता या आत्मजागृति को तुलनात्मक दृष्टि से यदि हम इस पर विचार करें तो यह पाते ही नैतिकता का आधार और प्राथमिक मानवीय गुण मानने वाले विचारकों हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन भी दमन के प्रत्यय को में वारनरफिटे प्रमुख है। वारनरफिटे नैतिकता को आत्मचेतनता का स्वीकार नहीं करते हैं। उनमें भी इच्छाओं का दमन अनुचित माना सहगामी मानते हैं। उनकी दृष्टि में नैतिकता का परिभाषक उस समग्र गया है। जैन दर्शन में क्षायिक एवं औपशमिक साधना की दो श्रेणियाँ सामाजिक प्रक्रिया में नहीं है, जिसमें मनुष्य जीवन जीता है, वरन् मानी गयी हैं। इनमें भी केवल क्षायिक श्रेणी का साधक ही आत्म- आत्मचेतना की उस मानवीय प्रक्रिया में है, जो व्यक्ति के जीवन में पूर्णता को प्राप्त कर सकता है; उपशम श्रेणी का साधक तो साधना रही हुई है। वस्तुतः नैतिकता आत्मचेतन जीवन जीने में है। उनका की ऊँचाई पर पहुँचकर भी पतित हो जाता है। इस प्रकार वह भी कथन है कि जीवन के समग्र मूल्य जीवन की चेतना में निहित हैं। दमन को अस्वीकार करता है और केवल संयम को स्थान देता है। यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो जीवन के किन्ही भी मूल्यों की अवधारणा इस अर्थ में वह मानववादी विचारणा के साथ है। कर सकता है। चेतना के नियंत्रण में जो जीवन है, वही सच्चा जीवन मानवतावाद कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण समाज है। नैतिक होने का अर्थ यह जानना है कि हम क्या कर रहे हैं? पर उसके परिणाम के आधार पर करता है। लेमान्ट के अनुसार कर्म-प्रेरक जागृत चेतना नैतिकता है और प्रसुप्त चेतना अनैतिकता है। शुभ एवं और कर्म में विशेष अन्तर नहीं है। कोई भी क्रिया बिना प्रेरणा के उचित कार्य वह नहीं, जिसमें आत्मविस्मृति होती है। वरन् वह है नहीं होती है और जहाँ प्रेरणा होती है, वहाँ कर्म भी होता है। तुलनात्मक जिसमें आत्मचेतना होती है।' दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करते समय हम यह पाते हैं कि बौद्ध नैतिकता का यह आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण जैन आचार-दर्शन दर्शन और गीता स्पष्ट रूप से कर्म के औचित्य और अनौचित्य का के अति निकट है। वारनरफिटे की नैतिक दर्शन की यह मान्यता अति निर्धारण कर्मप्रेरक के आधार पर करते हैं, कर्म-परिणाम के आधार स्पष्ट रूप में जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में उपलब्ध है। पर नहीं और इस आधार पर वे मानवतावाद से कोई साम्य नहीं रखते। फिटे जिसे आत्मचेतना कहते हैं, उसे जैन-दर्शन में अप्रमत्तता या जहाँ तक जैन-दर्शन का प्रश्न है, वह व्यवहार दृष्टि से कर्म-परिणाम आत्मजागृति कहा गया है। जैन-दर्शन के अनुसार प्रमाद आत्मविस्मृति को और निश्चय-दृष्टि से कर्म-प्रेरक को औचित्य अनौचित्य के निर्णय की अवस्था है। जैन-दर्शन में प्रमाद को अनैतिकता का प्रमुख कारण का आधार बनाता है। इस प्रकार उसकी मानवतावाद से इस सम्बन्ध माना गया है। जो भी क्रियाएँ प्रमाद के कारण होती हैं या प्रमाद की में आंशिक समानता है। अवस्था में की जाती हैं वे सभी अनैतिक मानी गयी हैं। 'आचारांग' मानवतावाद मनुष्य को ही समग्र मूल्यों का मानदण्ड स्वीकार में महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्रसुप्त चेतना वाला है करता है। इस प्रकार वह मानवीय जीवन को सर्वधिक महत्त्व प्रदान वह अमुनि (अनैतिक) है और जो जाग्रत चेतना वाला है वह मुनि करता है। यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न को देखें तो हमें (नैतिक) है। 'सूत्रकृतांग' में प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि भारतीय परम्परा भी मानवीय कहकर यही बताया गया है कि जो क्रियाएँ आत्मविस्मृति लाती हैं, जीवन के महत्त्व को स्वीकार करती है। जैन-आगमों में मानव-जीवन वे बन्धनकारक हैं और इसलिए अनैतिक भी हैं। इसके विपरीत जो को दुर्लभ बताया गया है। आचार्य अमितगति ने स्पष्ट रूप से कहा क्रियाएँ अप्रमत्त चेतना की अवस्था में सम्पन्न होती हैं, वे अबन्धकारक है कि जीवन में मनुष्य का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है। 'धम्मपद' में भगवान् होती हैं और इस रूप में पूर्णतया विशुद्ध और नैतिक होती हैं। इस बुद्ध ने भी मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताया है। 'महाभारत' में व्यास प्रकार हम देखते हैं कि वारनर फिटे का आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण ने भी यही कहा है कि यदि कोई रहस्यमय बात है तो वह यह है जैन-दर्शन के अति निकट है। कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कोई नहीं हैं। तुलसीदासजी ने इसी तथ्य न केवल जैनदर्शन में वरन् बौद्धदर्शन में भी आत्मचेतनता को को यह कहकर प्रकट किया है कि- 'बड़े भाग मानुष तन पावा, नैतिकता का प्रमुख आधार माना गया है। 'धम्मपद' में बुद्ध स्पष्ट रूप सुर दुर्लभ सब प्रन्थन्निं गावा'। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय से कहते हैं कि अप्रमाद अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। चिन्तन में भी मनुष्य जीवन के सर्वोच्च मूल्य को स्वीकार किया गया बौद्धदर्शन में अष्टांग साधना-मार्ग में सम्यक् स्मृति भी इसी बात को है। यहाँ हम पाते हैं कि मानवतावादी विचार-परम्परा की जैन-दर्शन स्पष्ट करती है कि आत्मस्मृति या जागृत चेतना ही नैतिकता का आधार से तथा सामान्य रूप से भारतीय-दर्शन से निकटता है। समकालीन है, जबकि आत्मविस्मृति या प्रसुप्त चेतना अनैतिकता का आधार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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