Book Title: Nischaynay Sarvagyata aur Adhyatma Bhavna
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ ३६८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति -ग्रन्थ अर्थात् जितने अरिहंत या तीर्थंकर हो चुके हैं, तथा होंगे वे सब एक ही बात कहते हैं, एक ही बात बताते हैं, एक ही धर्मका प्रतिपादन करते हैं, एक ही सद्धर्मकी घोषणा करते हैं कि किसी प्राणी, किसी भूत, किसी जीव या किसी सत्व यानी छोटे-मोटे स्थावर या जंगम किसी भी जीवको न मारना चाहिए, न पकड़ना चाहिए, न कष्ट पहुँचाना चाहिए। यह धर्म शुद्ध है, नित्य है और शाश्वत है । और उन्होंने इस अहिंसाकी कसौटी कितने प्यारे शब्दों में बताई है 'सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला' अर्थात् सभी प्राणियोंको अपना जीवन प्यारा है, सभी सुख-शान्ति चाहते हैं और सभीको दुःख बुरा लगता है । और — 'जह मम ण पिंयं दुक्खं जाणिहि एमेव सव्वजोवाणं' । जैसे हमें दुःख अच्छा नहीं लगता ऐसे ही सभी जीवोंको जानों । अतः 'सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविडं न मरिज्जिरं । तम्हा पाणिवहं घोरं णिग्गंथा वज्जियंति णं ॥' सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । अतः सभी प्रकारके प्राणीवध अर्थात् हिंसा से निर्ग्रन्थ परहेज करते हैं उसका त्याग करते हैं । उन्होंने सभी प्राणियों में आत्मोपम्यकी भावनाको जगाते हुए कहा - ' 'लुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं ति मनसि तुमं सि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि' - भद्र पुरुषों, जिसे तुम कष्ट देना चाहते हो वह तुम्हीं हो, वह तुम जैसा ही है। जिसे तुम मारना चाहते हो वह तुम्हीं हो। जिसे तुम सताना चाहते हो वह तुम्हीं हो। जिसे तुम तंग तुम्हीं हो। यानी जब तुम किसीको मारने या हिंसा करने को तैयार होते हो तो तुम करते हो । जिस क्रोध, अहंकार, माया और लोभके वशीभूत होकर तुम हिंसा और अन्य पापकार्योंमें प्रवृत्त होते हो वे सर्वनाशके द्वार हैं 'को हो पीई विणासेइ माणो विणयणासणो । माया मित्ताणि णासेइ लोभो सव्वविणासणो ॥ ' क्रोध मित्रता या प्रीतिका नाश कर देता है । मान विनयको छिन्न-भिन्न कर देता है । माया मित्रभावको नष्ट कर देती है और लोभ तो सर्वविनाशकारी होता है । अतः इन चार अन्तरंग शत्रुओं को - Jain Education International उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया मायमज्जवभावेण लोहं संतोसओ उपशमभाव अर्थात् क्षमा या शान्तिसे क्रोधका नाश करे, उसे जीते । विनय या कोमल भावनाओं से मानका मद चूर करे । सरलता या ऋजु भावोंसे मायाको जीते और सन्तोषसे लोभको जीते । करना चाहते हो वह स्वयं अपनी हिंसा जिणे । जिणे ॥ उनकी धर्मोपदेशकी सभाको समवसरण कहते हैं । समवसरण सम अवसरण अर्थात् जिसमें सबको समान अवसर हो । इसीलिए उनकी सभा में शूद्र, माली, कोरी, चमार, नाई, चांडाल सभी जाते थे । उनकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12