Book Title: Niryukti Sahitya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 12
________________ 214 नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन [ज्ञातव्य है कि मुनिपुण्यविजय जी ने इसे गाथा 233 लिखा है। किन्तु नियुक्तिसंग्रह में इस गाथा का क्रम 232 ही है।] इस गाथा में कहा गया है कि "मरणविभक्ति में इन सभी द्वारों का अनुक्रम से वर्णन किया गया है, पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से तो जिन अथवा चतुर्दशपूर्वधर ही जान सकते हैं।" यदि नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर होते तो वे इस प्रकार नहीं लिखते। शान्त्याचार्य ने स्वयं इसे दो आधारों पर व्याख्यायित किया। प्रथम चर्तुदश पूर्वधरों में आपस में अर्थज्ञान की अपेक्षा से कमी-अधिकता होती है, इसी दृष्टि से यह कहा गया हो कि पदार्थों का सम्पूर्ण स्वरूप तो चर्तुदश पूर्वी ही बता सकते हैं अथवा दर गाथा से लेकर आगे की ये सभी गाथाएँ भाष्य गाथाएँ हों।53 यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी इन्हें भाष्य गाथाएँ स्वीकार नहीं करते हैं। चाहे ये गाथाएँ भाष्य- गाथा हों या न हो किन्तु मेरी दृष्टि में शान्त्याचार्य ने नियुक्तियों में भाष्य गाथा मिली होने की जो कल्पना की है, वह पूर्णतया असंगत नहीं है। पुनः जैसा पूर्व में सूचित किया जा चुका है, सूत्रकृतांग के पुण्डरीक अध्ययन की नियुक्ति में पुण्डरीक शब्द की नियुक्ति करते समय उसके द्रव्य निक्षेप से एकभक्कि, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे तीन आदेशों का नियुक्तिकार ने स्वयं ही संग्रह किया है।54 बृहत्कल्पसूत्रभाष्य ( प्रथमविभाग, पृ. 44-45 ) में ये तीनों आदेश आर्यसुहस्ति, आर्य मंगू एवं आर्यसमुद्र की मान्यताओं के रूप में उल्लिखित हैं। इतना तो निश्चित है कि ये तीनों आचार्य पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु (प्रथम) से परवर्ती हैं और उनके मतों का संग्रह पूर्वधर भद्रबाहु द्वारा सम्भव नहीं है। दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति के प्रारम्भ में निम्न गाथा दी गयी है -- "वंदामिभद्दबाहुं पाईणं चरिमसयलसुयनाणि । सुत्तस्स कारगमिसि दसासु कप्पे य ववहारे।।" इसमें सकलश्रुतज्ञानी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु का न केवल वंदन किया गया है, अपितु उन्हें दशाश्रुतस्कंध, कल्प एवं व्यवहार का रचयिता भी कहा है, यदि नियुक्तियों के लेखक पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु होते तो, वे स्वयं ही अपने को कैसे नमस्कार करते ? इस गाथा को हम प्रक्षिप्त या भाष्य गाथा भी नहीं कह सकते, क्योंकि प्रथम तो यह ग्रन्थ की प्रारम्भिक मंगल गाथा है, दूसरे चूर्णिकार ने स्वयं इसको नियुक्तिगाथा के रूप में मान्य किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नियुक्तिकार चर्तुदश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हो सकते। __ इस समस्त चर्चा के अन्त में मुनि जी इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि परम्परागत दृष्टि से दशाश्रुतस्कंध, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र एवं निशीथ ये चार छेदसूत्र, आवश्यक आदि दस नियुक्तियाँ, उवसग्गहर एवं भद्रबाहु संहिता ये सभी चर्तुदश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु स्वामी की कृति माने जाते हैं, किन्तु इनमें से 4 छेद सूत्रों के रचयिता तो चर्तुदश पूर्वधर आर्य भद्रबाहु ही है। शेष दस नियुक्तियों, उवसग्गहर एवं भद्रबाहु संहिता के रचयिता अन्य कोई भद्रबाहु होने चाहिए और सम्भवतः ये अन्य कोई नहीं, अपितु वाराहसंहिता के रचयिता वाराहमिहिर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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