Book Title: Nirvan Lakshmipati Stuti
Author(s): Raj Buddhiraja
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 2
________________ और मनीषी अपने तन-मन को गला देते हैं / जीव एक स्थिति से दूसरी स्थिति में कब, क्यों और कैसे चला जाता है यही जानने योग्य विषय है। कौन-सी घड़ी में इसका शिशु रूप यौवन और वृद्धावस्था में पहुंच जाता है ? किसी को भी नहीं मालूम। जीव और संसार के इसी आश्चर्य को समझने के लिए लेखक ने मानवमात्र के लिए कुछ आदेश दिये हैं जो परमावश्यक हैं। सत्पात्र को दान देना और व्रत-नियम-निष्ठा प्रमुख हैं। दान के लिए सत्पात्र का होना उतना ही आवश्यक है जितना निर्मल दुग्ध के लिए साफ-सुथरा और मंजा बर्तन। निरंतर व्रत-नियम का पालन करने से व्यक्ति को इसी संसार में ही तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। वस्तुतः व्रत-नियम जीव पर अंकुश का कार्य करते हैं / इसी अंकुश नियन्त्रण से उसे ज्ञान होता है कि काया, लक्ष्मी और यौवन चंचल है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अंत में कवि शुभ, मंगल, सत्य, अमृत और सुख की कामना करता है। वस्तुतः यह ग्रन्थ अमूल्य है जिसमें जीव, ब्रह्म और संसार का वास्तविक स्वरूप निर्धारित है। भाव अपने आप में इतने सुलझे हैं कि पाठक के मन पर कभी गहरी चोट कर जाते हैं और कभी हृदय को छू जाते हैं। भाव इतने सशक्त हैं कि स्वयमेव भाषा का वस्त्र पहनते चलते हैं / भाषा का कोष इतना समृद्ध है कि लेखक अपनी इच्छा से शब्दों की मुट्ठी भरता और बिखेरता रहता है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ हिन्दी वाड.मय को समृद्ध करता है। A THUTSTATE क 5000 SUBINARS COMENTAVOLONIMALIOSAVVUOVIAMOMOKOVOVISVOMOMSMI आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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